Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 17
________________ HARIRHABARRAIBARBARBARICILIDULIHEARBAALHALELEBRLEBRITALITY आकांक्षा। ia [लेखक, श्रीयुत बाबू दयाचंद गोयलीय ।] जब मनुष्यको अपनी अज्ञानताका स्पष्ट आकांक्षासे सब चीजें सम्भव हो जाती हैं, रूपसे बोध हो जाता है तब उसके मनमें उन्नति- उन्नतिमार्ग खुल जाता है और उच्चसे उच्च की आकांक्षा उत्पन्न होती है जिसमें ऋषि मुनि पद भी जिसकी कल्पनाकी जा सकती है प्राप्त लीन रहते हैं । आकांक्षासे मनुष्य भूमिसे स्वर्गमें, हो जाता है। और तो क्या स्वयं मोक्षपद अज्ञान कूपसे ज्ञानमंदिरमें और अंधकारसे और केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाता है । ऐसी प्रकाशमें प्रवेश पाता है। इसके बिना अज्ञान कोई चीज नहीं है जिसका विचार किया जा अंधकपमें पशवत' विषयों में उन्मत्त हआ पडा सकता हो, परंतु जिसकी प्राप्ति न हो सकती हो । रहता है-जहाँ किसी प्रकारकी भी उन्नति नहीं आकांक्षासे ईश्वरदर्शन होते हैं और आनंदकर सकता। - के द्वार खुल जाते हैं । जब तक मनुष्यको सांसा__ आकांक्षा और इच्छामें अंतर है। आकांक्षा रिक लालसायें लगी रहती हैं वह आत्मोन्नतिकी दया, प्रेम सत्यता, पवित्रता आदि स्वर्गीय पदा- आकांक्षा नहीं कर सकता, परंतु जब सांसारिक ोंके लिए होती है-जिनसे आत्मिक सख मिलता लालसायें कडुवी और दुःखरूप मालूम होने है । इच्छा सांसारिक विषयवासनाओं और भोग लगती हैं तब उसे आत्मोन्नतिका ध्यान होता विलासोंके लिए होती है-जिससे इंद्रियसुख है । जब सांसारिक भोग विलासोंसे मनुष्यका मिलता है। जी भर जाता है, उनसे रुचि हट जाती है, तब जिस प्रकार पंखरहित पक्षी नहीं उड़ सकता, उसे स्वर्गीय सुख और आत्मानुभवके परमानंदउसी प्रकार आकांक्षा रहित मनुष्य उन्नति नहीं की अभिलाषा होती है । जब प्रत्यक्षमें पापसे कर सकता और अपनी विषय वासनाओंपर ' दुःख मिलने लगता है तब पुण्य उपार्जन करनेविजय प्राप्त नहीं कर सकता। वह अपनी इंद्रियों ' की मनुष्यमें इच्छा होती है । दुःख भोगने परका दास बना रहता है और विषयोंके आधीन सुखकी अभिलाषा होती है । वही अभिलाषा रहता है। उसके विचार स्थिर नहीं रहते । सच्ची अभिलाषा होती है । उसीसे मनुष्य स्वर्ग ।' सुख और परम्परा मोक्षआनंदका भोग कर सांसारिक घटनाओंके परिवर्तनके साथ उसका सकता है । आत्मोन्नतिका अभिलाषी मनुष्य मन भी चंचल चलायमान रहता है। उस मार्गका अनुगामी है जिसके अंतमें शांतिका जब मनुष्य आत्मोन्नतिकी अभिलाषा रखता विशाल और अनुपम मंदिर है । यदि वह मार्गमें है तब समझना चाहिए कि वह अपनी वर्तमान किसी जगह न रुके अथवा पीछे न हटे तो पतित दशासे असंतुष्ट है और उसमें परिवर्तन अवश्य एक दिन शांति-मांदरमें प्रवेश कर लेगा। करना चाहता है । यह इस बातको भलीभाँति यदि वह सदा अपने मनमें आत्माके स्वरूपको सूचित करता है कि वह विषय वासनाओंकी विचारता रहे, मोक्षका चिंतवन करता रहे, तो गाढ निद्रासे सचेत हो गया है और उसे वास्त- एक न एक दिन मोक्ष-महलमें पहुँच कर निजाविक जीवनकी सत्यताका बोध हो गया है। नंदको प्राप्त कर लेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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