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पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर | लेखक, श्रीयुत-भैयालाल जैन ।
इस महापुरुषका जन्म कलकत्तेसे ५२ मील पश्चिमकी ओर हुगली जिलेके वीरसिंह नामक एक छोटेसे ग्राममें सन् १८२० ईमें हुआ था । जब ये पाँच वर्षके हुए तब इनका वहाँकी ग्रामीणशाला में विद्यारम्भ कराया गया । वहाँ तीन वर्षतक इनने लिखना पढ़ना सीखा । फिर इनके पिता इन्हें कलकत्ता ले गये, जहाँ कि वे स्वतः नौकरी करते थे । और इन्हें संस्कृत विद्यालय में प्रवेश करा दिया । यहाँ इनने २० वर्षकी आयुतक विद्याध्यान किया ।
था,
बालक ईश्वर, जो कुछ प्रतिदिन पढ़ता था, वही उसे रात्रिको, अपने पिताको सुनाना पड़ता और यदि वह एक शब्द तो क्या, एक अक्षर भी भूलता तो पिता उसे बड़ी निर्दयतासे बंड देते थे। बहुधा अड़ोसी पड़ोसी आकर उसके पितासे उसपर दया करनेको कहा करते थे एकबार बालक ईश्वर कालेजके क्लार्क के भाग गया था । उसने उसपर बहुत सहानुभूति दिखलाई और उसे फिर घर पहुँचा दिया ।
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घर
घरपर छोटे बालकको बहुत कड़ा परिश्रम करना पड़ता था । उसको अपने कुटुम्बके लिए जिसमें इनके अतिरिक्त इनके पिता और दो छोटे भाई थे, अनाज मोल लेने बाज़ार जाना पढ़ता था, घर झाड़ना बुहारना पड़ता था, लकड़ी काटना पड़ती थी और भोजन भी बनाना पड़ता था । कभी कभी तो रसोई बना नेके लिए अन्न भी न रहता था । १० बजे रात्रिको सोते थे । इनके पश्चात् इनके जिनको कि १२ बजे रात्रितक काम
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पिता
करना
पड़ता था, अपना कार्यबन्द करते ही, इन्हें फिर जगा दिया करते थे और तबसे ये प्रातःकाल तक पढ़ा करते थे ।
इनके पिता के पास इतना द्रव्य नहीं था जिससे इनको ' फेशनेबल कपड़े बनवा जा सकें । ओढ़ने के लिए एक मोटी चादर, पहिननेके लिए सादी धोती और 'स्लिपरस' पाकर ही बालक ईश्वरको सन्तुष्ट रहना पड़ यह सादी पोशाक ये अपने जीवन भर धारण किये रहे । यहाँ तक कि जब थे धनवान् और प्रसिद्ध हो गये तब भी सिवाय पोशाकके इनने और कुछ नहीं पहना ।
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इतना कड़ा शारीरिक परिश्रम करने पर तथा पेट भर भोजन न मिलने पर नींद भी न सोनेपर, ईश्वरचन्द्रने संस्कृत बहुत ही शीघ्र अध्ययन करली । इनको पारितोषकपर, पारितोषक और छात्रवृत्ति - स्कालरशिप - पर छात्रवृत्तियाँ मिलती चलीं गईं । जब संस्कृत पूर्ण अभ्यास कर चुके तब २० वर्षकी अवस्था - में इन्हें ' विद्यासागर ' की उपाधि मिली ।
विद्यासागरको शीघ्र ही सरकारी नौकरी प्राप्त हो गई । इनको पहले पहल फोर्ट विलियम कालेजमें ५० रुपया मासिक पर हेडपंडितकी जगह मिली । इसके पश्चात् संस्कृत कालेजके प्रोफेसर - अध्यापक - नियुक्त किये गये । और फिर उसी कालेजके प्रिंसपल हो गये । सब विद्यार्थी इन पर बहुत प्रेम रखते थे । जितने ये सख्त प्रिंसपल थे, उतने ही दयालु भी थे । ये बहुत गरीब लड़कों की फीस और उन्हें हमेशा पुस्तकें देते रहे ।
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