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रामनाथ ।
हार करना भी बंद कर दिया ।
अकृतज्ञ और उच्छृङ्खल भानजेके साथ पत्रव्यव - पूर्ति और लड़ाई-झगड़ों के प्रतिकार के लिए अपन शक्तिके अनुसार धन और सामर्थ्य से सहायता करता था । असहाय दीन दुखियों और पीड़ितों की सेवा-शुश्रूषा, मृतकोंके अग्निसंस्कार और भूखे दरिद्रोंको भोजन की व्यवस्था करनेमें उसका सारा समय बीतता था ।
इसी एक मामूली घटना को लेकर मामा भानजे तथा जमीदार और तालूकेदारके बीच वैमनस्य होगया। रामनाथको मालूम हुआ कि मैं पराधीन हूँ और मामाकी कृपासे पढ़ रहा हूँ । उसके मनमें इस पराधीनताकी तीव्रताका अनुभव होते ही उसने लिखना पढ़ना सब छोड़ दिया । रामनाथने जबसे कालेज में पढ़ना शुरू किया था तबसे वह मामा साहबके खर्चके भारको कम करनेके लिए शहर में ट्यूशन करता था और इस तरह अपना आधा व्यय निकाल लेता था । यदि वह चाहता तो उसके समान परिश्रमी और उद्योगी पुरुषके लिए शेष आधा खर्चा और जुटा लेना भी कोई कठिन न था, किन्तु उसने ऐसा करनेकी जरूरत न समझी थी । अब मामाके साथ मनमुटाव हो जानेसे उसके हृदयमें एक गंभीर अभिमान की वेदनाका संचार हो गया, इस लिए उसने अपने भविष्य की लेशमात्र भी परवा न करके अपने पैतृक ग्रामके समीपी नरसिंहपुर के अँगरेज़ी स्कूलमें तीसरे शिक्षककी जगह पर नौकरी करली और अपने पितांके भद्रासनको पुनः संस्कृत करके रहना प्रारंभ किया । रामनाथ मामाके घर नहीं गया, उसने केवल एक पत्रद्वारा अपनी नौकरीका समाचार उनको लिख भेजा । मामाने पत्रोत्तर नहीं दिया, रामनाथने भी फिर और पत्र नहीं लिखा ।
रामनाथ दिनकी पाठशाला में काम करता था और रातको अपने घर स्थापित किये हुए नाइटस्कूलमें बिना कुछ फीस लिये नगरके सब श्रेणीके बालकोंको कई उपयोगी विषयों की शिक्षा दिया करता था । अवसर पड़ने पर नगरके समस्त सम्प्रदायों से मिलकर उनके अभावोंकी
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उधर बाबू बदरीप्रसाद बदला लेनेकी चि न्तामें व्यस्त रहते थे । परन्तु थोड़े ही दिनों में अपनी ओरसे उपस्थित की गई सैकड़ों अड़चनों और बाधाओं के प्रति उस स्पष्टवक्ता सर्वप्रिय और निर्भीक युवककी बिलकुल लापरवाहीको देखकर उन्हें विस्मित और कुण्ठित होना पड़ा । बदरीप्रसाद समझदार आदमी थे - वे समझ गये कि ऐसे तुच्छ बहानों ( मिसों ) से एक शिक्षित और चतुर व्यक्तिसे वैर मँजाना कुछ सहज काम नहीं है । इस लिए वे समयकी प्रतीक्षा करने लगे । इधर हठी रामनाथ मगरके साथ वैर करके जलमें रहनेके प्रचलित प्रवादको जितना स्मरण करने लगा, उसको व्यर्थ करने के लिए उसमें उतनी ही दृढ़ता बढ़ने लगी ।
इस तरह एक वर्ष बीत गया । रामनाथके मामा अकस्मात् एक प्राणघातक बीमारी से पीड़ित हुए । समाचार पाते ही रामनाथने बिना बुलाये जाकर मामाकी मरणपर्यंत खूब जी लगाकर सेवा-शुश्रूषा की । रामनाथका मामा मरते समय उसे हृदयसे आशीर्वाद और अपने छोटे बच्चोंकी तथा धन- सम्मत्तिकी रक्षाका भार दे गया ।
श्रद्ध हो चुकने पर मामीने स्नेहके साथ रामनाथको अपने पास ही रहने के लिए अनुरोध किया, परन्तु रामनाथ न माना वह अत्यन्त नम्रतापूर्वक इंकार करके अपने घर लौट आया । वह अपना नियमित काम करने के बाद रातको जागकर परीक्षा के लिए मिहनत करने लगा ।
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