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जैनहितैषी
क्योंकि उन्होंने कामन्दकीयनीति और मायके विस्तृत संस्करणसे पंचतंत्रके जैन-संस्कर. ग्रथोंसे वाक्य उद्धृत किये हैं । हितोपदेशका णोंके प्रभावका पता लगता है, क्योंकि उनमें अनुवाद बहुतसी योरोपीय और एशियाकी बहुत-सी कथायें ऐसी मिलती हैं जो पहले पभाषाओंमें ( अर्थात् अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेञ्च, ग्रीक, हल जैन संस्करणोंमें ही लिखी गई हैं। बंगाली, ब्रजभाषा, गुजराती, हिन्दी, उर्दू,मराठी, ये जैनसंस्करण जिनका नाम पंचतंत्र नहीं नेवाडी, फारसी और तैलंग ) में होगया, और किन्तु पंचाख्यान है, भारतीय कथा-साहित्यके इनमेंसे कई भाषाओंमें उसका अनुवाद कई इतिहासके लिए सबसे अधिक महत्त्वके हैं। बार हुआ है। उदाहरणार्थ जर्मनमें इसके छ: ऊपर कहा जा चुका है कि जैनोंने और विशेऔर अँगरेजीमें आठ अनुवाद मौजूद हैं। षकर गुजरातके श्वेताम्बरोंने अपने देशकी
पंचतंत्रके जिन संस्करणोंका उल्लेख हम सभ्यतामें बहुत बड़ा योग दिया है। उन्होंने ऊपर कर आये हैं उनमें जैनोंकी कृति बहुत एक विपुल कथा-साहित्य लिख डाला है । जिअधिक नहीं है। तंत्र-आख्यायिका एक वैष्णवकी सके द्वारा उन्होंने आख्यायिकाओं, पशु-कथकृति है और यही बात उत्तरी-पश्चिमी-संक्षिप्त ओं, उपन्यासों और गल्पोंके रूपमें अपने संस्करणके विषयमें है, जिससे दक्षिणी और धर्मके सिद्धान्तोंका प्रचार किया । इस लिए नेपाली पंचतंत्र और हितोपदेशका विकाश हुआ यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि जैन साहै। हितोपदेश स्वयं एक शैव विद्वान्की कृति है। धुओं और श्रावकोंने पंचतंत्रके कई रूपान्तर परन्तु यह बात बड़ी विचित्र है कि हितोप- कर डाले और उसको सर्वथा भिन्न भिन्न रूपोंमें देशकी वज्रभाषाका रूपान्तर हमको दो जैन बदल दिया । हस्तलिखित ग्रंथोमें मिला है। इन दोनों ग्रंथोंमें इन जैन संस्करणोंमें अर्थात् पंचाख्यानमें जुदा जुदा पाठ हैं और इनमेंसे कमसे कम जो ग्रंथ सबसे अधिक महत्त्वका है वही सबएक ग्रंथ गुजरातमें लिखा गया था । प्रसिद्ध से प्राचीन है । इसको किसी जैनसाधुने गुजगुजराती पंडित लल्लूलालने स्वयं कहा है कि रातमें लिखा था । दुर्भाग्यवश न तो उनके मेरी 'राजनीति' किसी संस्कृत ग्रंथका अनु- नामका ही पता है और न समयका; क्योंकि वाद नहीं है, किन्तु मैंने उसे ब्रजभाषाकी एक अभी तक किसी ऐसी हस्तलिखित प्रतिका प्राचीन पुस्तकके आधार पर लिखा है। ब्रज- पता नहीं लगा जिसमें ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति भाषाकी यह प्राचीन पुस्तक हितोपदेश और हो । परन्तु ग्रंथकर्ताने, जैसा कि स्वपंचतंत्रके चतुर्थभाग अर्थात् पंचतंत्रके जैन गीय अध्यापक प्रिजोबेलने बतलाया है, रुद्रटसंस्करणको मिलाकर बनाई गई है। और यह का एक श्लोक उद्धृत किया है, इस लिए उसने बहुत कुछ संभव है कि उसका कर्ता केवल गुज- यह पंचाख्यान लगभग ८५० ई० के बाद राती ही नहीं, किन्तु जैनधर्मानुयायी भी हो। लिखा होगा और चूंकि पूर्णभद्रने पंचाख्यानसंस्कृत और देशीभाषाओंमें दक्षिणी-पंचतंत्रके के आधार पर अपना ग्रंथ लिखा है, इस लिए अब भी बहुतसे संस्करण मिलते हैं। देशी भाषा- यह पंचाख्यान ११९९ ई० अर्थात् संवत् ओंके कई संस्करणोंसे और संस्कृत भाषाके एक ११५५ के पहले लिखा गया होगा।
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