Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 32
________________ - स्वामी विवेकानंदके उदार उपदेश। THETITIEmamatarntammut ITTET S [ लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा । ] .-जो मनुष्य धर्म-पागल होता है, उसका हम अपने क्षुद्र मनोविकरोंसे लड़ने लगेंगे, सिर दूसरी भाषामें परमात्माका नाम सुनकर उनको दबानेके लिए बराबर टक्कर लेने लगेंगे, तत्काल ही फिर जाता है। धर्म-पागल मनुष्यको रातदिन उनसे कशम-कश करने लगेंगे और सार और असारका कुछ विचार नहीं होता। उनके दमन करनेके लिए पूर्ण उत्साह और वह व्यक्ति विषयक विचारोंमें इतना डूबा रहता शक्तिसे काम लेने लगेंगे तब ही समझेंगे कि है, कि दूसरे मनुष्योंकी सत्यताके विषयमें अब वास्तविक धर्मतृष्णा उत्पन्न हुई है। .. विचार करनेका उसे स्वप्न भी नहीं आता । वह –धर्म, यह परमार्थ-ज्ञानका भाँडार-अत्युच्च केवल इतना ही देखता है कि सामनेवाला पुरुष विद्यापीठ है । यह न कहीं मोल बिकता है न स्वधर्मी है या परधर्मी ? उसके सारासार विचा- किसी पुस्तकसे ही निकलता है । चाहे तुम रोकी केवल इतनी ही सीमा है । इसका सारे संसारके कोने कोनेमें ढूँढ डालो, चाहे यह परिणाम होता है, कि उसे स्वधर्मी । हिमालय, आल्प्स या काकेशस पर्वतको (चाहे वह चरित्र हीन हो या लाखों अप- है देख डालो, चाहे महासागरकी तलीमें इसका पता राध ही क्यों न करता हो ) बहुत ही बहुत सा लगाओ और चाहे मरुधरके या आफ्रिकाके सज्जन, प्रामाणिक, विश्वासी और दयालु बाल मैदानोंकी रेतीका जर्रा जरी उथल-पाथल कर दिखाई देता है, और परधर्मी, (चाहे वह कितना ही दयालु और श्रेष्ठाचारी क्यों न हो) डालो, मगर जबतक तुम्हें सत्गुरुके दर्शन न होंगे अत्यंत-क्रूर, मायाचारी, मिथ्यात्वी, नास्तिक और तबतक वह तुम्हें कहींसे भी नहीं मिलेगा। निन्य दिखाई देता है। इतना ही नहीं प्रत्यत संसारमें सर्वसाधारण गुरुओंकी अपेक्षा, धर्मपागल अन्यमतावलम्बियों-परधर्मियोंपर जल्म अत्यन्त श्रेष्ठ और परम सन्माननीय गुरु निराले करनेसे भी पीछा नहीं हटता है। ही होते हैं। ये गुरु ईश्वरीयसत्ता लेकर आये -जब हमारी ज्ञान तृष्णा पूर्ण होगी तब हुए केवल अवतारी पुरुष होते हैं । उनमें जो कुछ हम चाहेंगे वही हमें मिल जायगा। इतना सामर्थ्य होता है कि वे किसीके मस्तक यह नियम अनादि है । जिस वस्तुपर हमारा पर हाथ रख कर, शरीरपर उँगली लगाकर अन्तःकरण जड़ जायगा वही वस्तु निस्सन्देह ज्यादा क्या, केवल दृष्टिपात मात्रसे ही उसको हमें मिलेगी, अन्यका मिलना सर्वथा असंभव आत्मज्ञान सिखा देते हैं और उसका उद्धार है । वास्तविक धर्मतृष्णाका उत्पन्न होना महा कर लेते हैं। कठिन कार्य है। यह बात हमें जितनी सरल भक्तिमंदिरकी नींव पवित्रताकी स्फटिक मालूम होती है, उसे कार्यके रूपमें लाना उतनाही शिलापर जमाई गई है । बाह्यशरीरशुद्धि कठिन है । शास्त्र-पुराण पढ़ने या पुस्तकें और अन्नकी स्वच्छता रखना बहुत ही सरल पढ़लेने या सुन लेनेहीसे धर्मतृष्णा उत्पन्न हो है; परन्तु अन्तरंगके निर्मल और पवित्र हुए जाती है, यह कहना सर्वथा भूल है । जब विना बाह्यशुद्धि सब निरर्थक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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