Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 11
________________ CHOHORITALIAM MELALBANAOLLE. एक पत्र और उसका उत्तर। CATTERYTAMITTEmilfriHitHTRITIES २८३ उपििलखित अंगरेजी पत्रका अनुवाद- इसी आधारपर मैंने उक्त विवादस्थ पंक्तिको श्रीयुत नाथूराम प्रेमी लिखा था; साथ ही एक फुटनोटमें जो कि मेरे __ असली निबंध लगा था, मैंने पं. जवाहरलालकी सम्पादक, जैनहितैषी. इस गलतीको प्रगट कर दिया था। यह बात कि महाशय, मैं इस गलतीसे सहमत नहीं हुआ मेरे 'जैनहितैषी' के ( गत ) फरवरी, और मार्चके बादके इस कथनसे प्रगट होती है कि नेमिचंद्र अंकमें, देवबन्द निवासी श्रीयत जगलकिशोर ईसाकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं । दुर्भामुख्तारने मझसे उस भ्रमको साफ कर देनेकी ग्यसे वह फुटनोट उक्त निबंधके साथ “दिगम्बर प्रार्थना की है जो कि गोमटेश्वरकी मर्तिके अस- जैन" में छपते समय प्रमादवश छूट गया और ली प्रतिष्ठा-समयसे सम्बंध रखता है। इस विष- यही पाठकोंके हृदयोंमें भ्रमोत्पादनका कारण यमें मेरा यह निवेदन है कि चूंकि वीरनिर्वाण हुआ। परन्तु अब मैं आशा करता हूँ कि मेरे संवत् १००० से कल्की संवत् शुरू होता है इस कथनसे सब भ्रम दूर हो जायगा । और बाहुबलि चरित्रमें यह लिखा है कि गोमटे- यदि आप मेरे उपर्युक्त नोटका हिन्दी अनुश्वरकी मूर्ति कल्की संवत् ६०० में प्रतिष्ठित वाद जनहितैषीके आगामी अंकमें प्रकाशित कर की गई थी, इस लिए मूर्ति स्थापित किये जाने- नेकी कृपा करेंगे तो मैं इसके लिए आपका बहुत का असली समय वीरनिर्वाण संवत् १६०० अनुगृहीत होऊँगा। या ईसवी सन् १०७४ है। यह समय एपीग्रे ) आपका विश्वासपात्रफ़िका इण्डिका आदिमें प्रकाशित उन शिला ता. १३-४-१६९ लेखोंके अनुकूल है जिनमें राजमल्ल और चामु " शरच्चन्द्र घोशाल। ण्डरायके नाम पाये जाते हैं। यही कारण है जिससे मैंने अपने गोम्मटसारपर लिखे गये प्रत्युत्तर । लेखमें यह लिखा था कि, चामुण्डराय और नेमिचन्द्र ईसाकी ११ वीं शताब्दी में हए हैं। ऊपरका यह नोट लिखकर, श्रीमान् प्रोफेसर रही इस पंक्तिकी बात कि “यह कल्की संवत् । शरच्चंद्रजी घोशालने अपने अंग्रेजी लेखसे उत्पन्न ६०० विक्रम संवत् ७३५ के बराबर है।” उदाता प्रगटकी है वह निःसन्देह प्रशंसनीय तु होनेवाले भ्रमको दूर करनेके प्रयत्न द्वारा जो श्रीयुत जुगलकिशोरजीका इसे एक भ्रम बत- है। आपके इस नोटसे यह बात तो साफ़ हो लाना सत्य है। यह मेरी गणना नहीं है। पं. . जाती है कि 'कल्की संवत् ६००' विक्रम संवत् जवाहरलाल शास्त्रीने अपनी बृहद्रव्यसंग्रहकी यसका ७३५ के बराबर नहीं है और इस लिए साधारण प्रस्तावनामें लिखा है: जनताका इससे एक भ्रम दर हो जाता __“ यहाँ कल्की व कलिके संवत्से शकके है। परन्तु साथ ही एक नया भ्रम और संवत्को ग्रहण करना चाहिए । " " इसके अनु- पैदा होता है और दूसरा भ्रम बदस्तूर सार कल्की (शक )के संवत् ६०० (वि. सं. कायम रहता है । नया भ्रम यह पैदा होता है ७३५)में......." इत्यादि । कि प्रोफेसर साहबने इस नोटमें हेतुरूपसे यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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