Book Title: Jain Dhatu Pratima Lekh Part 1
Author(s): Kantisagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 109
________________ परिशिष्ट ? पुरातन दैनन्दिनी से सन १६४० में नागपुर (मध्यप्रदेश) के प्राचीन जैन ज्ञानभंडारस्थित हस्तलिखित ग्रन्थों के अन्वेषण करते समय एक बड़े आकार का गुटका मेरे हाथ लगा। उसमें सिद्धाचलजी की नव टंकों के कुछ प्रतिमा लेखों की प्रतिलिपि थी। थोड़ा सा परिचय भी उल्लिखित था। उसी की अविकल प्रतिलिपि भाषा में बिना कुछ परिवर्तन किए ही यहां पर दी जा रही है । ११ पत्र की यह प्रति असावधानी से कीड़ों का भोजन बन गई एवं शीत के कारण कुछ भाग ऐसा चिपक गया कि दूर करने से कुछ वर्णन नष्ट भी हो गया है। इस प्रति में न केवल प्रतिमा लेखों का ही संग्रह है अपितु विक्रम संवत १८६२ में बीकानेर और जयपुर की खरतरगच्छ की गद्दियों में विभाजन हुअा उसकी पक्षपात वाली चिड़ियां भी उल्लिखित हैं। उन दिनों जैन समाज के एक ही गच्छ में कितना भीषण वैमनस्य और मन मुटाव था इसका ज्वलन्त उदाहरण इस कृति में सुरक्षित है। बीकानेर नरेश को लिखे गये पत्र में श्रीपूज्यजी का दैन्य परिलक्षित होता है। उदयपुर से पालीताना जो पत्र लिखा गया है वह सुप्रसिद्ध बाफना परिवार (उदयपुर) का जान पड़ता है। कहीं-कहीं संग्रहीत लेखों में जहाँ भीजिनमहेन्द्रसूरिजी का नाम था वहां संग्राहक ने तीक्ष्ण द्वेषवश मंडोरीयेका उल्लेखकर छोड़ दिया है। इससे इतना तो निश्चित है कि इन लेखों का संग्राहक बीकानेर की गद्दी का कोई यति रहा होगा । नागपूर में उनकी गद्दी के यति हरदम रहा करते थे, जैसा कि वहां पर पाए गए आदेश-पत्रों से स्पष्ट है। इनका संकलन कब हुआ होगा, संवत प्रति में निर्दिष्ट नहीं है; परन्तु सम्पूर्ण दैनंदिनी के पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि १८६२ और १६१. के "Aho Shrut Gyanam"

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