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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
मगधनरेश बिम्बसार (क)
से जब यह
काल पर भगवान महावीर का समवसरण आया है, तब उसने सिहासन से उठकर सात पेड चलकर भगवान को परीक्ष नमस्कार किया । और नगर में महावीर के दर्शन को जाने के लिए डोंडी पिटवाई । वह स्वयं वैभव के तथा अपनी रानी चेलना के साथ विपुला - चल के समीप आया | तब समवसरण के दृष्टिगोचर होते ही समस्त वैभव को छोड़कर रानी के साथ समवसरण में प्रविष्ट हो गया । श्रेणिक ने भगवान की वंदना कर तीन प्रदक्षिणाएं दीं और गदगद हो भक्तिभाव से उनकी स्तुति की और स्तवन करते हुए कहा कि हे नाथ! मुझ अज्ञानी ने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के संचय में झारभादि द्वारा घोर पाप किये हैं। और तो क्या मुझ मिध्यादृष्टि पापी ने मुनिराज का वध करने में बड़ा आनन्द माना था, उन पर मैंने बहुत उपमगं किया था, जिससे मैंने नरके ले जाने वाले नरकाय कर्म का बन्ध किया, जो छूट नहीं सकता । ग्रापको वीतराग मुद्रा का दर्शन कर आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गए। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं इस संसार समुद्र से पार जाऊँगा । हे भगवन्! आपके दर्शन से मुझे अत्यन्त शान्ति मिली है । आपके दर्शन से मुझे ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो, जो मैं इस दुस्तर भवसागर से पार हो सकूँ । इस तरह वह भगवान महावीर का स्तवन कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गया, और उपदेशामृत का पान किया। बिम्बसार भगवान के असा धारण व्यक्तित्व से प्रभावित ही नहीं हुआ। किन्तु उसने उन्हें लोक का कारण बन्धु समझा। उसका हृदय आनन्द से छलछला रहा था । ऐसा मानन्द और शान्ति उसे अपने जीवन में कभी प्राप्त नहीं हुई थी। उनके दर्शन से उसके हृदय में जो विशुद्धि और प्रसन्नता बढ़ी, उसका कारण केवल वीतराग प्रभु का दर्शन है ।
उसी दिन वैशाली के राजा चेटक की पुत्री चन्दना ने दीक्षा ली और वह आर्यिकाओं को प्रमुख गणिनी हुई । उस समय अनेक राजाश्रों, राजपुत्रों तथा सामान्य जनों ने महावीर की देशना से प्रभावित होकर यथाजात मुद्रा धारण की। अनेकों ने श्रावकादि के व्रत धारण किये। राजा श्रेणिक के अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार और मेघकुमार आदि पुत्रों ने राज वैभव का परित्याग कर दीक्षा लो और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना को श्रीर उनकी माताओं ने तथा अन्तःपुर की स्त्रियों ने सम्यग्दर्शन, शोल, दान, प्रोषध और पूजन का नियम लेकर त्रिजगद्गुरु वर्द्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार किया और व्रतादि का अनुष्ठान कर जीवन सफल बनाया ।
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श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रातःकाल सूर्योदय के समय अभिजित नक्षत्र, और रुद्र मुहूर्त में भगवान महावीर की प्रथम धर्मदेशना हुई । वह वर्ष का प्रथम मास प्रथम पक्ष श्रीर युग की आदि का प्रथम दिवस था, जिसमें भगवान महावीर के सर्वोदय तीर्थ की बारा प्रवाहित हुई। भगवान महावीर ने इस पावन तिथि में समस्त संशयों की छेदक, दुन्दुभि शब्द के समान गम्भीर और एक योजन तक विस्तृत होने वाली दिव्य ध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा चलाने के लिए उपदेश दिया। महावीर का यह धर्मोपदेश एक योजन के भीतर दूर या समीप
१. सुता चेटकराजस्व कुमारी चन्दना तदा । ताम्रसंवीता जातार्याणां पुरःसरी ॥ २. वासल्स पढममा साबण खामम्मि बहुल डिवाए । अभिजी क्लत्तम्म व उप्पत्ती श्रम्मतित्थस्स || साहुले पाविरुद्दमुहते सुहोदये रविणो । अभिजस्स पढमजोए जुगस्स श्रादी हमस्स पुढं ।।
हरिवंश पु० २७०
-तिलो० प० १-६६,७०
३. स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुभिध्वनिधीरे योजनान्तरवायिना ॥ श्रावणस्यासिते पक्ष नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्यह्न पूर्व हे शासनार्थमुदाहरत ॥
- हरिवंश पु० २।९०-९१