Book Title: Jain Dharma Darshan evam Sanskruti
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 93
________________ ८४ ४. वहे ५. यगया ६. युक्ति ७. दशरथ ८. दृढ़रथ ९. महधन्वा १०. सप्तधन्वा ११. दशधन्वा १२. शतधन्वा। वृष्णिदशा में निषध आदि जिन बारह बालकों का उल्लेख है उन्हें कृष्ण के बड़े भ्राता बलराम की रानी रेवती का पुत्र बताया गया है। यहाँ दो तीन बातें विशेष रूप से विचारणीय हैं- प्रथम तो यह कि वृष्णिदशा के नाम से ऐसा लगता है कि यह दस अध्यायों का कोई ग्रन्थ है। किन्तु वर्तमान में इसमें बारह अध्याय पाये जाते हैं। इस ग्रन्थ में जो बारह अध्यायों के नाम उल्लेखित किये गए हैं, उनमें मात्र प्रथम अध्याय का ही विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है शेष अध्याय का विवरण न देकर मात्र यह कह दिया गया है कि शेष ग्यारह अध्यायों का वर्णन प्रथम अध्याय के समान ही जान लेना चाहिए। इस आधार पर यहाँ यह विचार उत्पन्न होता है कि क्या शेष ग्यारह राजकुमार भी कृष्ण के बड़े भ्राता बलदेव की रानी रेवती के ही पुत्र थे? किन्तु मूल ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिलता है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि ये सभी राजकुमार वृष्णिवंश से सम्बन्धित रहे हैं। ____ जहाँ तक वृष्णिदशा नामक इस बारहवें उपांगसूत्र की विषय-वस्तु का प्रश्न है मूल ग्रन्थ में सर्वप्रथम द्वारिका नगरी का वर्णन किया गया है। उसके पश्चात् रेवतक पर्वत तथा उसकी तलहटी में स्थित नन्दनवन का उल्लेख हुआ है। यह सभी विवरण अन्तकृत्दशा नामक अष्टम अंगसूत्र के समान ही है, इसमें कोई नवीनता या भिन्नता परिलक्षित नहीं होती है। तदनन्तर इस नंदनवन उद्यान में अरिष्टनेमि के आगमन का उल्लेख है। फिर कृष्ण वासुदेव द्वारा निषधकुमार आदि अपने परिवार के साथ अरिष्टनेमि भगवान के दर्शनार्थ जाने का उल्लेख है। निषधकुमार को देखकर वरदत्त मुनि के मन में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। अरिष्टनेमि वरदत्त अणगार की इस जिज्ञासा को शान्त करते हुए सर्वप्रथम निषधकुमार के वीरांगद नामक पूर्व भव का विवेचन करते हैं। उसके बाद निषधकुमार की दीक्षा और साधना का वर्णन किया गया है। अन्त में निषधकुमार के स्वर्गवास के पश्चात् उनकी देवलोक में उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। फिर यह बताया गया है कि निषधकुमार का जीव देवलोक से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और दीक्षित होकर अपने साधनों के द्वारा मुक्ति को प्राप्त करेगा। यह मूल ग्रन्थ अति संक्षिप्त है, फिर भी इसमें निषधकुमार के पूर्वभव का तथा परवर्ती भव सहित तीन भवों का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त मूलग्रन्थ में विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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