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जैन जीवन-दृष्टि : १२७
कर सकता है। परमात्मा को पाने का अर्थ अपने में निहित परमात्म तत्त्व की अभिव्यक्ति ही है, परमात्मा कोई बाह्य वस्तु नहीं है, वह तो हमारा ही शुद्ध स्वरूप है इसीलिए जैन दर्शन में परमात्मभक्ति का लक्ष्य है 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही व्यक्ति की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य है। परमात्म सत्ता व्यक्ति से भिन्न नहीं है, वह बाहर नहीं है वह हम ही में निहित है, अत: जैन दर्शन में परमात्म भक्ति का अर्थ कोई याचना या समर्पण नहीं है, अपितु अपनी अस्मिता को पूर्ण अभिव्यक्ति देना है। किसी जैन कवि ने कहा है
अज कुलगत केशरी रे लहेरे निज सिंह निहार।
तिम प्रभु भक्ति भाव लहे रे निज आतम संभार।। स्वतन्त्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है
जैन दर्शन की मान्यता है कि स्वतन्त्रता व्यक्ति का स्वतःसिद्ध अधिकार है। हम तत्त्वतः स्वतन्त्र हैं, परतन्त्रता हमारी ममत्ववृत्ति के कारण हमारे स्वयं के द्वारा आरोपित है। दूसरे शब्दों में स्वतन्त्रता हमारा निजस्वभाव है और परतन्त्रता हमारा विभाव है, विकृत मनोदशा है। अतः विभाव को छोड़कर स्वभाव में आना ही स्वतन्त्रता की या आत्मपूर्णता की उपलब्धि है और यही जैन दर्शन के अनुसार 'मुक्ति' है, आत्मा का परमात्मा बन जाना है। परतन्त्रता 'पर' के कारण नहीं है, वह स्व आरोपित है। 'पर' में ममत्ववृत्ति या मेरेपन का आरोपण कर व्यक्ति स्वयं ही बन्धन में आ जाता है। हमारे बन्धन का हेतु या कारण हम स्वयं हैं। जैन दर्शन मानता है कि मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद (असहगता), कषाय और मन-वचन-काया की स्वछंद प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति बन्धन में आता है। परतन्त्रता तो स्वयं आरोपित है अत: उससे मुक्ति सम्भव है। गुलामी चाहे वह 'मन' की हो या ऐन्द्रिक विषयों की तृष्णा जनित है वह हमारे द्वारा ही आदी गई है। अतः सम्यक् जीवन-दृष्टि के विकास के साथ मुक्ति के द्वार स्वतः उद्घाटित हो जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार संसार में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो इस स्वयं के द्वारा आरोपित या ओढ़ी गई गुलामी से मुक्त हो सकता है, क्योंकि उसमें आत्म-सजगता, विवेकशीलता और संयमन की शक्ति है, आवश्यकता है उसे अपनी इस स्वतंत्र अस्मिता का या 'पर' निरपेक्ष स्वस्वरूप का बोध कराने की। हमारी मोह निद्रा या अज्ञानदशा ही हमारे बंधन का हेतु है। हमें किसी दूसरी शक्ति ने बन्धन में नही बांध रखा है 'अपितु हम अपनी भोगासक्ति से स्वयं ही बंध गये हैं, अतः उससे हमें स्वयं ही ऊपर उठना होगा। स्व के द्वारा आरोपित 'कारा' को स्वयं ही तोड़ फेंकना होगा। किसी विचारक ने ठीक ही कहा है -
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