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भौतिकवादी, भोगवादी और उपभोक्तावादी संस्कृतियों का विकास हुआ है, उसके कारण आज व्यक्ति अधिक तनावग्रस्त होता जा रहा है। मानव आज जिसे विकास समझ रहा है, वह ही किसी दिन मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विनाश का कारण सिद्ध होगा। अतः समत्वपूर्ण या समतावादी जीवन दृष्टि का विकास आवश्यक है। आत्म-स्वातंत्र्य या परमात्म स्वरूप की उपलब्धि
जैन जीवन-दर्शन का दूसरा मुख्य संदेश स्वातंत्र्य है। यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि जैन दर्शन के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता नहीं है। उसके अनुसार स्वच्छन्दता अनैतिक है, पाप मार्ग है और स्वतन्त्रता नैतिकता है, धर्म है। सभी व्यक्तियों की यही आकांक्षा रहती है कि वे समस्त प्रकार की परतन्त्रताओं या बन्धनों से मुक्त हों। यहां परतन्त्रता का अर्थ है- दूसरों पर निर्भरता। यहां तक कि जैन जीवन-दर्शन पर-पदार्थों की दासता ही नहीं, ईश्वर की दासता को भी स्वीकार नहीं करता। इसी बात को एक उर्दूशायर ने इस प्रकार कहा है
'इंसा की बदबख्ती अन्दाज के बाहर है। कमबख्त खुदा होकर बन्दा नजर आता है।।'
वह यह मानता है कि चाहे जो भी तत्त्व हों जो हमें दासता की ओर ले जाते हैं वे सभी हमारे सम्यक् विकास में बाधक हैं, अत: न केवल मन एवं इन्द्रियों के विषय भोगों की दासता ही दासता है, अपितु ईश्वरीय इच्छा के आगे समर्पित होकर अकर्मण्य हो जाना भी एक प्रकार की दासता ही है। जैन दर्शन उपास्य और उपासक, भक्त और भगवान के भेद को भी शाश्वत मानकर चलने को भी एक प्रकार की परतन्त्रता ही मानता है। इसलिए उसकी मुक्ति की अवधारणा यही रही है कि व्यक्ति परमात्म दशा को उपलब्ध हो जाये। 'अप्पा सो परमप्पा', यह उसके जीवन-दर्शन का मूल सूत्र है। वह यह मानता है कि तत्त्वतः आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है सभी प्राणी परमात्मा रूप हैं। हम तत्त्वतः परमात्मा ही हैं यदि हममें और परमात्मा में कोई भेद है तो वह इतना कि हम अभी अविकास की अवस्था में हैं, हम अपने में उपस्थित उस परमात्म सत्ता को पूर्णतया अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। जैन दर्शन की सम्पूर्ण साधना का लक्ष्य परमात्म स्वरूप की उपलब्धि ही है। हममें और परमात्मा में वही अंतर है जो एक बीज और वृक्ष में होता है। बीज में वृक्ष निहित है किन्तु अभिव्यक्त नहीं हुआ है, उसी प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति में परमात्म तत्त्व निहित है, किन्तु वह सभी पूर्णरूप से अभिव्यक्त नहीं हुआ है। बीज जब अपने आवरण को तोड़कर विकास की दिशा में आगे बढ़ता है तो वह वृक्ष का रूप ले लेता है। इसी प्रकार से व्यक्ति भी अपने कर्म रूपी आवरणों को तोड़कर परमात्मावस्था को प्राप्त
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