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जैन जीवन-दृष्टि : १३३
१. अस्तेय अर्थात् दूसरों की आवश्यकता की सामग्री पर उनके अधिकार का हनन नहीं करना।
२. भोग और उपभोग की एक मर्यादा/सीमा रेखा निर्धारित करना अर्थात् जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना।
३. परिग्रह या संचय की एक सीमा निर्धारित करना अर्थात् आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना यद्यपि इन तीनों आचार नियमों के पीछे एक ही जीवन-दृष्टि रही हुई है और वह है संयमित जीवन शैली का विकास।
यह सत्य है कि जीवन जीने के लिए भोगोपभोग आवश्यक है और भोगोपभोग के लिए संचय आवश्यक है, किन्तु जैन जीवन दर्शन का कहना है कि यह मर्यादित ही होना चाहिये। असीमित भोगाकांक्षा और संचयवृत्ति हमारे जीवन में तनाव या विक्षोभ उत्पन्न करती है, वैयक्तिक जीवन की समता को और वैश्विक शांति को भंग करती है, अतः इन पर नियन्त्रण आवश्यक है और तभी सम्यक् जीवन-दृष्टि का विकास सम्भव होगा। यह ठीक है कि भोग आवश्यक है, किन्तु वह त्यागपूर्वक, संयमपूर्वक या मर्यादापूर्वक ही होना चाहिए-इसके लिए ईशावास्योपनिषद्का तेन त्यक्तेन भुंजीथा' का सूत्र वाक्य ही हमारा मार्गदर्शक हो सकता है। दूसरे आज हम भोग के प्राकृतिक साधनों का अमर्यादित दोहन कर एक उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना रहे हैं, इस उपभोक्ता जीवन-दृष्टि के कारण आज हम आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन की बात भूलकर इच्छाओं के उद्वेलन के द्वारा अधिकतम उपभोग के लिए अधिकतम उत्पादन और अधिकतम मौद्रिक लाभ के सिद्धान्त पर चल रहे हैं। आज के उत्पादन का सूत्र वाक्य है- 'अनावश्यक मांग बढाओं अपना माल खपाओ और अधिकतम मुनाफा कमाओ।'
जैन दर्शन कहता है कि हमारी आवश्यकताएं क्या हैं, इसके निर्णायक हम नहीं, प्रकृति या हमारी दैहिक संरचना है। भोग इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। आपको जीवन-जीने का अधिकार है किन्तु तब तक जब तक आपका शरीर साधना में सहायक है आपका जीवन दूसरों के लिए भार रूप नहीं बना है। जैन जीवन-दृष्टि के अनुसार भोग और त्याग दोनों संयमित जीवन जीने के लिए हैं - अमर्यादित जीवन जीने के लिए नहीं।
साथ ही संचयवृत्ति भी व्यक्ति की आवश्यकता पर आधारित है न कि उसकी असीम तृष्णा पर। जैन दर्शन कहता है कि जितनी आवश्यकता है, उतना ही संचय करो। इस सम्बन्ध में महाभारत का निम्न श्लोक हमारा मार्गदर्शक है। कहा है
यावत् भ्रियते जठरं तावत् स्वत्वं देहीनाम् । अधिकोयोऽभिमन्यते स्तेन एव सः।।
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