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(५) भविष्यपुराण और स्कन्दपुराण में भी विक्रम का जो उल्लेख है, वह
नितान्त काल्पनिक है- ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भविष्यपुराण खण्ड २ अध्याय २३ में जो विक्रमादित्य का इतिवृत्त दिया गया हैवह लोक परम्परा के अनुसार विक्रमादित्य को भतृहरि का भाई बताता है तथा उनका जन्म शकों के विनाशार्थ हुआ ऐसा उल्लेख
करता है। अत: इस साक्ष्य को पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता है। (६) गुणाढ्य (ई० सन् ७८) द्वारा रचित बृहत्कथा के आधार पर क्षेमेन्द्र
द्वारा रचित बृहत्कथामंजरी में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है। उसमें भी म्लेच्छ, यवन, शकादि को पराजित करने वाले एक शासक के रूप में विक्रमादित्य का निर्देश किया गया है। श्री मद्भागवत स्कन्ध १२ अध्याय १ में जो राजाओं की वंशावली दी गई है, उसमें 'दशगर्दभनोः नृपाः' के आधार पर गर्दभिल्ल वंश के दस राजाओं का उल्लेख है। जैन परम्परा में विक्रम को गर्दभिल्ल के पुत्र के रूप में उल्लेखित किया गया है। विक्रम संवत् के प्रवर्तक के पूर्व जो राजा हुए उसमें किसी ने विक्रमादित्य ऐसी पदवी धारण नहीं की। जो भी राजा विक्रमादित्य के पश्चात् हुए हैं उन्होंने ही विक्रमादित्य का विरुद धारण किया है- जैसे सातकर्णी गौतमी पुत्र (लगभग ई० सन् प्रथम-द्वितीय शती) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (ई० सन चतुर्थ शती) आदि-इन्होनें विक्रमादित्य की यशोगाथा को सुनकर अपने को उसके समान बताने हेतु ही यह विरुद
धारण किया है। अतः गर्दभिल्ल पुत्र विक्रमादित्य इनसे पूर्ववर्ती हैं। (९) वाणभट्ट के पूर्ववर्ती कवि सुबन्धु ने वासवदत्ता के प्रास्ताविक श्लोक
१० में विक्रमादित्य की कीर्ति का उल्लेख किया है। (१०) ई०पू० की मालवमुद्राओं में मालवगण का उल्लेख है, वस्तुतः
विक्रमादित्य ने अपने पितृराज्य पर पुनः अधिकार मालवगण के सहयोग से ही प्राप्त किया था, अत: यह स्वाभाविक था कि उन्होंने मालव संवत् के नाम से ही अपने संवत् का प्रवर्तन किया। यही कारण है कि विक्रम संवत् के प्रारम्भिक उल्लेख मालव संवत् या
कृत् संवत् के नाम से ही मिलते हैं। (११) विक्रमादित्य की सभा के जो नवरत्न थे, उनमें क्षपणक के रूप में
जैनमुनि का भी उल्लेख है, कथानकों में इनका सम्बन्ध सिद्धसेन
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