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षटजीवनिकाय की अवधारणा : एक वैज्ञानिक विश्लेषण : १४३
संज्ञा भी प्रदान की गई थी और इन्हें पृथ्वी देवता, आपदेवता, अग्निदेवता वायुदेवता के रूप में पूज्य भी माना गया है। यदि इनमें देवत्व का आरोपण किया जाता है तो यह सत्य है कि इन्हें सजीव भी मानना होगा, क्योंकि देव तो सजीव या सचेतन है। इस आधार पर कुछ विचारकों ने यहां तक कह दिया कि वैदिकों ने जिन्हें देवता के रूप में स्वीकार किया था उन्हें ही जैन दर्शन में जैनों ने जीव के रूप में स्वीकार कर लिया। जैन दर्शन में षट्जीव निकायों में पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु-ये चार सजीव माने गये, फिर भी यहां मूलभूत अंतर यह है कि जहां वैदिक परम्परा में इनमें देवत्व का आरोपण करके एक उच्च भूमिका प्रदान की गई वहीं जैन दर्शन में इन्हें ऐकेन्द्रिय जीव मानकर इनको जीवनी शक्ति के विकास की दृष्टि से प्राथमिक स्तर पर ही रखा गया। यदि जैनों को वैदिकों का अनुशरण ही करना था, तो उन्होंने इनमें देवत्व का आरोपण क्यों नहीं किया? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। दूसरे यह कि वैदिक परम्परा में इनमें देवत्व का आरोहण कर इन्हें एक ही माना गया था, किन्तु जैन दर्शन में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और अग्निकायिक जीवों की संख्या तो असंख्य मानी गई और वनस्पति कायिक की अनन्त। अत: यह बात पूरी तरह सिद्ध नहीं हो पाती है कि पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि को जीव मानने में जैनों ने वैदिकों का ही प्रकारान्तर से अनुशरण मात्र किया है।
वैदिक परम्परा में जहाँ भी उपनिषद्काल में पञ्चमहाभूतों की चर्चा आई है वहाँ पञ्चमहाभूतों को जड़ या भौतिक ही माना गया है, साथ ही जिन-जिन तथाकथित आस्तिक दर्शनों में इन पञ्चमहाभूतों की चर्चा हुई है उन सभी ने इन्हें जड़ या अजीव तत्त्व ही माना है। इसके विपरीत भारतीय चिन्तन में जैन धर्म-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो पञ्चमहाभूतों में से आकाश को मात्र जड़ मानता है और शेष पृथ्वी, अप, वायु
और अग्नि इन चार को सजीव मानता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इन्हें जड़तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान जब विज्ञान के विकास की बात करता है तो वह जल को ही जीवन के विकास का आधारभूत तत्त्व मानता है फिर भी आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि अपने आप में तो जड़ ही है। भारतीय दर्शनों और वैज्ञानिकों दोनों की दृष्टि से पञ्चमहाभूतों में आकाश को जड़ माना गया है जैनों ने भी उसे जड़ ही कहा है। इस सन्दर्भ में जैन दर्शन, अन्य भारतीय दर्शनों और विज्ञान में विशेष मतभेद की बात नहीं है, किन्तु जहाँ तक पृथ्वी अप् (जल) अग्नि और वायु का प्रश्न है वह तो इन्हें सजीव ही मानता है, यह भी सत्य है कि वनस्पति में जीवन है। इस बात को लेकर जैन दर्शन का अन्य भारतीय दर्शनों और विज्ञान से कोई मतभेद नहीं है, सभी वनस्पति को सजीव ही मानते हैं। जगदीशचन्द्र बशु ने तो अनेकों प्रयोगों के माध्यम से वनस्पति की जीवन्तता को सिद्ध कर दिया है,
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