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षट्जीवनिकाय की अवधारणा : एक वैज्ञानिक विश्लेषण : १४५
की चर्चा करते हुए पृथ्वीकायिक जीव ऐसे व्यापक शब्द का प्रयोग किया है। जब हम षट्जीवनिकाय शब्द का प्रयोग करते हैं तो उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ यह प्रयोग सचित्त/ सजीव जीवों के लिए ही है । दशवैकालिकसूत्र के षट्जीवनिकाय अध्ययन में स्पष्ट रूप से पृथ्वीकायिक जीव ऐसा प्रयोग भी देखा जाता है, साथ ही उसमें 'पुढ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं' ऐसा पाठ हमें मिलता है। इसका शब्दशः हिन्दी अर्थ है - पृथ्वीचित्त अर्थात् चेतना। पृथ्वीकायिक जीव अनेक हैं उनकी पृथक्-पृथक् सत्ता है । दशवैकालिक में यहां पृथ्वी, अप्, तेजस और वायु इन चारों को ही स्पष्ट रूप से सजीव बताया गया है और यह भी कहा गया है कि अन्यत्र आचारांगसूत्र में उन्हें जो शस्त्र कहा गया है वह उनकी सजीवता का वाचक है। स्वयं आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सप्तम उद्देशक के अन्त में भी षट्जीवनिकाय शब्द का निर्देश है। यहां जीव+निः+काय में काय शब्द काय के जीवत्व का वाचक है । आचारांगसूत्र में इनके लिए 'शस्त्र' शब्द का प्रयोग हुआ है इसकी पुष्टि दशवैकालिकसूत्र करता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि दशवैकालिकसूत्र आचारांगसूत्र की दृष्टि का समर्थक है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि के जीवों के प्रकारों की चर्चा हुई है और यह कहा गया है कि ये चारों प्रकार के जीव सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हैं। पृथ्वीकायिक आदि सूक्ष्मजीव तो लोक में ठसाठस भरे हुए हैं लेकिन ये हमें दिखाई नहीं देते हैं। जैन दार्शनिक सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के पृथ्वीकायिक आदि जीवों की सजीवता को मानते हैं। यद्यपि यहां यह स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, तेजसकायिक जीव और वायुकायिक जीव चाहे वे सूक्ष्म हों अर्थात् मानवीय आंखों से दृश्य न हों अथवा स्थूल हों दोनों ही जीवन से युक्त होते हैं।
यहां यह प्रश्न खड़ा होता है कि जब विज्ञान और अन्य दर्शन उन्हें निर्जीव मान रहे हैं तो उनमें जीवन की सिद्धि किस प्रकार की जाए? इस सम्बन्ध में मेरा तर्क अन्य लोगों से कुछ भिन्न है, अन्य चिन्तकों के मुझसे भिन्न तर्क भी हो सकते हैं, किन्तु मेरा तर्क जिस ठोस आधार पर खड़ा हुआ है, वह वैज्ञानिक है। सर्वप्रथम मेरी मान्यता यह है कि पृथ्वी, अप् आदि तभी सजीव हैं जब वे किसी जीव के काय रूप में परिणत हैं, इसके विपरीत यदि कोई जीव जब उस काय का परित्याग कर देता है तो वह पृथ्वीकाय निर्जीव हो जाता है अर्थात् जीव द्वारा गृहीत पृथ्वीतत्त्व जिसे उसने अपने शरीर के रूप में परिणत किया है जब तक जीवित है वह सजीव है और जीवों द्वारा त्यक्त शरीर में रहा हुआ पृथ्वी तत्त्व मात्र पुद्गल पिण्ड होने से निर्जीव है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्ट कर सकते हैं- किसी प्राणी के शरीर में जो हड्डी है वह हड्डी जब तक उस जीवित शरीर का अंग बनी हुई है सजीव है यद्यपि वह कैल्शियम या चूने
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