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स्वयं बंधे हैं स्वयं खुलेंगे, सखे न बीच में बोल ।
इस प्रकार जैन जीवन - दृष्टि स्व की स्वतंत्र सत्ता के 'अस्मिता बोध' या 'स्वरूप बोध' का संदेश देती है। 'जैन जीवन - दृष्टि' की यह चर्चा व्यक्ति स्वयं की अपेक्षा से की गई है। बाह्य व्यवहार या सामाजिक जीवन दर्शन की अपेक्षा से उसने हमें तीन सूत्र दिये हैं
१) वैचारिक स्तर पर अनेकांत या अनाग्रह
२) व्यवहार के स्तर पर अहिंसा
३) वृत्ति के स्तर पर अपरिग्रह या असंचय या अनासक्ति'
आगे हम इनके सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा करेंगे। किन्तु इसके पूर्व जैन धर्म के इस सूत्र वाक्य को समझ लेना आवश्यक है। जैन धर्म को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन्, पक्षपातो न विद्यते ।
नास्त्यन्यं पीडनं किञ्चित्, जैन धर्मः स उच्यते । ।
अर्थात् जैनधर्म की जीवन-दृष्टि का सार यह है कि व्यक्ति पक्षपात या वैचारिक दुराग्रहों से ऊपर उठकर अनाग्रही (स्याद्वादी) दृष्टि को अपनाये और अपने व्यवहार से किसी को किञ्चित् भी पीड़ा नहीं दे ।
अहिंसा अर्थात् जीवन का सम्मान
जैन दर्शन में अहिंसा शब्द एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के निर्वाण, समाधि, शान्ति, विमुक्ति, क्षान्ति (क्षमाभाव), शिव (कल्याणकारक), पवित्र, कैवल्यस्थान आदि ६० पर्यायवाची नाम दिये हैं। संक्षेप में कहें तो वह समस्त सद्गुणों की प्रतिनिधि है। सामान्य रूप में अहिंसा का अर्थ हैजीवन जहाँ भी है और जिस रूप में भी है उसका सम्मान करो। यह मानो कि जिस प्रकार तुम्हें जीवन जीने का अधिकार है उसी प्रकार संसार के प्रत्येक प्राणी को जीवन
ने का अधिकार है। अतः जीवन के जो-जो भी रूप हैं उन्हें पीड़ा या कष्ट देने, त्रास ने उन्हें विद्रूपित करने, उन्हें प्रदूषित करने या उन्हें नष्ट करने का हमें कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, जीवन सभी को प्रिय है, कोई भी मरना नहीं चाहता है, सभी को सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है, अतः किसी की हिंसा करना, दुःखी करना या त्रास देना पाप है, अनैतिक और अनुचित है | अहिंसा आर्हत् प्रवचन का सार है उसे शुद्ध और शाश्वत धर्म कहा गया है। क्योंकि संसार के प्रत्येक प्राणी में
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