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एक अन्य अपेक्षा से जैन दर्शन में हिंसा के दो रूप माने गये हैं - द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। वैचारिक स्तर पर कषाय से कलुषित भाव या दूसरे के अहित की भावना यह भाव हिंसा है या हिंसा का मानसिक रूप है। भाव हिंसा ही द्रव्य हिंसा या हिंसा की बाह्य घटना का कारण होती है। इसीलिए जैन चिन्तकों ने यह माना कि जहाँ दुर्भाव है, दूसरे के अहित की भावना है वहाँ निश्चय ही हिंसा है, चाहे उसके परिणामस्वरूप हिंसा की घटना घटित हो या नहीं भी हो।
इसलिये जैन जीवन-दर्शन यह मानता है कि व्यक्ति को आत्मसजगता पूर्वक दूसरों के कल्याण की भावना से कार्य करना चाहिए। साथ ही यह भी आवश्यक है कि वह दूसरों की मंगल भावना से सक्रिय होकर कर्म करे। अहिंसा केवल निष्क्रियता या निषेधात्मक नहीं है उसका एक सकारात्मक पक्ष भी है जो सेवा, परोपकार और लोक मंगल की भावना से जुड़ा हुआ है, उसमें नहीं मरने के साथ-साथ बचाने का भाव भी जुड़ा हुआ है, उसके पीछे लोकमंगल या परोपकार के उदात्त मूल्य भी जुड़े हैं, जो पारस्परिक हित-साधन की भावना में अपना साकार रूप ग्रहण करते हैं।
जैन दर्शन का मानना है - जीवन एक-दूसरे के सहयोग के आधार पर चलता है। जीवन जीने में परस्पर सहयोग की भावना होनी चाहिये - परस्पर संघर्ष, संहार या शोषण की भावना नहीं होनी चाहिये - यह अहिंसा के सिद्धान्त का हार्द है। जैन आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय में लिखा है - जीवन परस्पर सहयोग के आधार पर चलता है - (परस्परोपग्रहोजीवानाम्)। जीवन जीने में दूसरों का सहयोग लेना और सहयोग देना यही एक प्राकृतिक व्यवस्था है - (The Law of life is the law of cooperation) सहयोग ही जीवन का नियम है। व्यवहार या प्राकृतिक व्यवस्था की दृष्टि ही सर्वत्र कार्य करती हुई दिखाई देती है- हमें जीवन जीने के लिए प्राणवायु (ऑक्सीजन) चाहिए, वह हमें वनस्पतिजगत् से मिलती है। वनस्पतिजगत् को किसी एक मात्रा में कार्बन डाइ-ऑक्साइड चाहिए - उसका उत्सर्जन प्राणीजगत् करता है। प्राणीजगत् के अवशिष्ट मलमूत्र आदि वनस्पतिजगत् का आहार बनते हैं, तो वनस्पतिजगत् के फल आदि उत्पादन प्राणीजगत् का आहार बन जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का जीवन-चक्र पारस्परिक सहयोग पर चलता है और सन्तुलित बना रहता है। दुर्भाग्य से पश्चिम के एक चिन्तक डार्विन ने इस सिद्धान्त को विकास के सिद्धान्त के नाम उलट दिया। उसने कहा - 'अस्तित्व का संघर्ष और योग्यतम की विजय'। मनुष्य ने अपने को योग्यतम मानकर जीव जातियों और प्राकृतिक साधनों का दोहन किया। जीवों की अन्य प्रजातियों की हिंसा और प्रकृति के जीवन के लिए अंगीभूत या परमावश्यक हवा और पानी को प्रदूषित करने का मार्ग अपनाया। पारस्परिक अविश्वास और भय के बीज बोकर आज अपनी ही चिता तैयार कर ली है।
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