________________
जैन जीवन-दृष्टि
-
सम्यक्-जीवन-दृष्टि का विकास आवश्यक
मानव व्यक्तित्व का विकास उसकी अपनी जीवन-दृष्टि पर आधारित होता है। व्यक्ति की जैसी जीवन-दृष्टि होती है, उसी के आधार पर उसके विकास की दिशा निर्धारित होती है। कहा भी गया है कि 'यादृशी दृष्टि तादृशी सृष्टि', व्यक्ति की जिस प्रकार की जीवन-दृष्टि होती है, उसी प्रकार उसका जीवन व्यवहार भी होता है और जैसा उसका जीवन व्यवहार होता है, वैसा ही वह बन जाता है। आत्म-विकास के आकांक्षी तो सभी व्यक्ति होते हैं, किन्तु उनके विकास की दिशा सम्यक है या नहीं यह बात उनकी सम्यक् जीवन-दृष्टि पर ही निर्भर होती है। अत: जैन दर्शन में सम्यक्जीवन-दृष्टि के विकास पर सबसे अधिक बल दिया गया है। जब व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होगा, तब ही उसका आचार-व्यवहार भी सम्यक् होगा। जब तक दृष्टिकोण सम्यक नहीं होगा, तब तक व्यक्ति का ज्ञान और आचरण भी सम्यक नहीं होगा। यही कारण है कि चाहे जैनों का त्रिविध-साधना मार्ग हो या बौद्धों का अष्टांगिक मार्ग हो उसमें प्रथम स्थान सम्यक्-दर्शन या सम्यक्-दृष्टि को ही दिया गया है। सम्यक्-दृष्टि ही व्यक्ति के आत्म-विकास की सम्यक्-दिशा निर्धारित करती है और उसी के आधार पर व्यक्ति सम्यक्-दशा को प्राप्त करता है। किन्तु यह सम्यक्-दशा अर्थात् मानवजीवन के लक्ष्य की पूर्णता भी तभी सम्भव होगी, जब हमारे जीवन की दिशा अर्थात् जीवन जीने की पद्धति और जीवन-दृष्टि परिवर्तित होगी। यही कारण था कि महावीर ने दर्शनविशुद्धि अर्थात् जीवन जीने के सम्यक् दृष्टिकोण पर सबसे अधिक बल दिया। अत: यहां महावीर का जीवन-दर्शन अर्थात् जीवन जीने की दृष्टि क्या है? इसे समझना परमावश्यक है। जीवन का सम्यक् लक्ष्य : समत्व का सर्जन और ममत्व का विसर्जन
किसी भी धर्म के जीवन दर्शन के लिये सबसे पहली आवश्यकता जीवन के सम्यक् या आदर्श लक्ष्य के निर्धारण की होती है। जैन दर्शन में जीवन का लक्ष्य समभाव या समत्व की उपलब्धि बताया गया है। दूसरे शब्दों में जीवन में समत्व का अवतरण हो यही जीवन का सम्यक् लक्ष्य है। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा समत्व रूप है और इस समत्व को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का लक्ष्य है। इसी बात
को आचारांगसूत्र में प्रकारान्तर से इस प्रकार कहा गया है कि 'आर्यजन समभाव को Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org