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जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत : ९९
विवरण देता है। अत: यह सामान्य रूप से भारतीय इतिहास और विशेष रूप से जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण थाती है। खारखेल के इस अभिलेख में द्विपदात्मक नमस्कारमंत्र में 'नमोसव्वसिद्धाणं' पाठ है, जिसकी पुष्टि अंगविज्जा के साहित्यिक स्रोत से भी होती है।
परवर्ती अभिलेखों विशेषतः दक्षिण से प्राप्त ५-६ठी शती के अभिलेखों में चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख (६३४ ई.), हथंडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर लेख (९९७ई.) आदि प्रमुख है। दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों की विशेषता यह है कि उनमें आचार्यों की गुरु-परम्परा, कुल, गच्छ आदि का विवरण तो मिलता ही है साथ ही अभिलेख लिखवाने वाले व्यक्तियों व राजाओं के सम्बन्ध में भी सूचना मिलती है। दक्षिण के इन्हीं अभिलेखों से जैनधर्म के यापनीय और कर्चक सम्प्रदायों की सूचना मिलती है। साथ ही हलसी के एक अभिलेख से पाँचवी शती में उत्तरी कर्नाटक में श्वेताम्बरों की उपस्थिति की सूचना मिलती है। इस काल तक श्वेताम्बर और दिगम्बरों के मन्दिर अलगअलग नहीं होते थे और श्वेताम्बर भी ननमूर्ति की ही उपासना करते थे यह भी ज्ञात होता है।
अन्य प्रमुख अभिलेखों में कक्क का घटियाल प्रस्तर लेख (वि.सं. ९१८), कुमारपाल की बडनगर प्रशस्ति (वि.सं. १२०८), विक्रमसिंह कछवाहा का दूबकुण्ड लेख (१०८८ ई.), जयमंगलसूरि रचित चाचिग-चाहमान का सुन्ध पर्वत अभिलेख आदि हैं, जिनसे धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास भी ज्ञात होता है।
इसी प्रकार जैन साहित्यिक व अभिलेखीय दोनों ही स्रोतों से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जैन विद्वानों, रचनाकारों ने भारतीय इतिहास के लिए हमें महत्त्वपूर्ण अवदान दिया है, जिसका सम्यक् मूल्यांकन और उपयोग अपेक्षित है। हम इतिहासविदों से अनुरोध करते हैं कि वे अपने अध्ययन एवं भारतीय इतिहास की नवीन व्याख्या के लिए इन स्रोतों का भरपूर उपयोग करें, ताकि कुछ नवीन तथ्य सामने आ सकें।
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