________________
११२
सम्प्रदाय रहा है, तो वह यापनीय दिगम्बर ही है, क्योंकि वह अचेलकत्व का समर्थक है। मुझे दुःख केवल इतना ही है कि उन्हें दिगम्बर विद्वान् अपने से पृथक् मानकर उनके नाम से ही नाक-भौंह क्यों सिकोड़ते हैं। यदि जैनाभास के रूप में उल्लेखित द्राविड और माथुर संघों तथा उनके साहित्य से हमें कोई विरोध नहीं है, भट्टारकों द्वारा रचित साहित्य को भी हम अपना मान लेते हैं, तो यापनीय साहित्य तथा उनके मंदिर एवं मूर्तियों को अपनाकर भी उनको यापनीय कहने में हमें क्यों संकोच होता है? और उसके लिए नवदिगम्बर जैसे नये नामकरण की क्या आवश्यकता है? वस्तुतः यापनीय ही वह मूलधारा है, जिससे दिगम्बर और श्वेताम्बर धाराओं का विकास हुआ है और जो दोनों के बीच समन्वय का सेतु बनती है। नवदिगम्बर की कल्पना भी हमारे बीच भेद रेखा को अधिक गहरा करेगी, जबकि यापनीय परम्परा हमें एक-दूसरे के निकट लायेगी जो कि युग की आवश्यकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org