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कर्मजाबुद्धि की १२ और पारिणामिकी बुद्धि की २१ कथाओं - इस प्रकार कुल ८८ कथाओं का नाम संकेत है। इसकी टीका में इन कथाओं का विस्तृत विवेचन भी उपलब्ध होता है। किन्तु मूल ग्रन्थ में कथाओं के नाम संकेत से यह तो ज्ञात हो जाता है कि नन्दीसूत्र के कर्ता को उन सम्पूर्ण कथाओं की जानकारी थी। इस काल की जैन कथाएँ विशेष रूप से चरित्र चित्रण सम्बन्धी कथाएँ ऐतिहासिक कम और पौराणिक अधिक प्रतीत होती हैं यद्यपि उनको सर्वथा काल्पनिक भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें वर्णित कुछ व्यक्ति ऐतिहासिक भी हैं। आगमयुग की कथाओं में कुछ चरितनायकों के ही पूर्व जन्मों की चर्चा है जिनमें अधिकांश की या तो मुक्ति दिखाई गई है या फिर भावी जन्म दिखाकर उनकी मुक्ति का संकेत किया गया है। तीर्थंकरों के भी अनेक पूर्वजन्मों का चित्रण इनमें नहीं है। समवायांगसूत्र आदि में मात्र एक ही पूर्व भव का उल्लेख है। कहीं-कहीं जातिस्मरण ज्ञान द्वारा पूर्वभवों की चेतना का निर्देश भी किया गया है। आगमों में जो जीवन गाथाएँ हैं, उनमें साधनात्मक पक्ष को छोड़कर कथा विस्तार अधिक नहीं है। कहीं-कहीं तो दूसरे किसी वर्णित चरित्र से इसकी समरूपता दिखाकर कथा समाप्त कर दी गई है।
___आगमयुग के पश्चात् दूसरा युग प्राकृत आगमिक व्याख्याओं का युग है। इसे उत्तर प्राचीन काल भी कह सकते हैं। इसकी कालावधि ईसा की दूसरी-तीसरी शती से लेकर सातवीं शती तक मानी जा सकती है। इस कालावधि में जो महत्त्वपूर्ण जैन कथाग्रन्थ अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में लिखे गये उनमें विमलसूरि का पउमचरियं, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी और अनुपलब्ध तरंगवईकहा प्रमुख हैं। इस काल की अन्तिमशती में यापनीय परम्परा में संस्कृत में लिखा गया वारांगचरित्र भी आता है। यह भी कहा जाता है कि विमलसूरि ने पउमचरियं (रामकथा) के समान ही हरिवंशचरियं के रूप में प्राकृत में कृष्णकथा भी लिखी थी किन्तु यह कृति उपलब्ध नहीं है। इस काल के इन दोनों कथाग्रन्थों की विशेषता यह है कि इनमें आवान्तर कथाएं अधिक हैं। इस प्रकार इन ग्रन्थों में कथाप्ररोह शिल्प का विकास देखा जा सकता है। इस काल के कथाग्रन्थों में पूर्व भवान्तरों की चर्चा भी मिल जाती है।
स्वतन्त्र कथाग्रन्थों के अतिरिक्त इस काल में जो प्राकृत आगमिक व्याख्याओं के रूप में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य लिखे गये हैं उनमें अनेक कथाओं के निर्देश हैं। यद्यपि यहां यह ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में जहां मात्र कथा संकेत है वहां भाष्य और चूर्णि में उन्हें क्रमशः विस्तार दिया गया है। धूर्ताख्यान की कथाओं का निशीथभाष्य में जहां मात्र तीन गाथाओं में निर्देश है, वहीं निशीथचूर्णि में ये कथाएं तीन पृष्ठों में वर्णित हैं। इसी को हरिभद्र ने अधिक विस्तार देकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना कर की है।
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