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भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन :७
परिशुद्धि लिखने वाले का भी उल्लेख किया है। दूसरी ओर इस ग्रंथ की टीका में धर्मकीर्ति के वादन्याय, न्यायबिन्दु एवं प्रमाणवार्तिक, शान्तरक्षित के तर्कसंग्रह
और नागार्जुन के माध्यामिकशास्त्र एवं दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय का भी निर्देश किया गया है। डॉ० रंजन कुमार शर्मा ने इसी प्रसंग में न्यायप्रवेशसूत्रम् की भूमिका में हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा का जो निर्देश किया है, वह भ्रान्त है क्योंकि यह ग्रंथ हरिभद्र से परवर्ती है। अत: इसका निर्देश हरिभद्र की न्यायप्रवेश की टीका में सम्भव नहीं है।
दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय और न्यायप्रवेश के पश्चात् बौद्धन्याय के प्रमुख आचार्यों में धर्मकीर्ति का नाम आता है। धर्मकीर्ति ने जहाँ एक ओर अपने ग्रंथ प्रमाणवार्तिक में उद्योतकर, भर्तृहरि और कुमारिल की उपस्थापनाओं का खण्डन किया है वहीं दूसरी ओर वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, व्योमशिव तथा जैन चिन्तक अकलंक और विद्यानन्द ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक के मन्तव्यों की समीक्षा की है। धर्मकीर्ति के पूर्व जहाँ बौद्ध दार्शनिकों का बौद्ध दर्शन की समीक्षा का आधार दिङ्नाग का प्रमाणसमुच्चय रहा था वहीं परवर्तीकाल में धर्मकीर्ति का प्रमाणवार्तिक बन गया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में बौद्धेतर दार्शनिक बौद्ध-ग्रंथों का और बौद्ध दार्शनिक बौद्धेतर दार्शनिकों के ग्रंथों का अध्ययन करते थे। ज्ञातव्य है कि धर्मकीर्ति के अन्य भी प्रमुख ग्रन्थ न्यायबिन्द, प्रमाणविनिश्चय, हेतुबिन्दु, सम्बन्धपरीक्षा, वादन्याय आदि रहे हैं, जिनमें नैयायिकों, मीमांसकों एवं जैन उपस्थापनाओं की समीक्षा मिलती है। धर्मकीर्ति के पश्चात् बौद्धन्याय के क्षेत्र में धर्मोत्तर और अर्चट के नाम आते हैं। जैन ग्रंथ प्रमाणनयतत्त्वालोक के टीकाकार रत्नप्रभसूरि ने 'रत्नकरावतारिका' में शब्दार्थ सम्बन्ध के संदर्भ में नैयायिकों, मीमांसकों और वैयाकरणिकों के मतों की समीक्षा धर्मोत्तर के नाम से की। इसी प्रकार रत्नप्रभसूरि ने अर्चट के नाम का भी निर्देश किया है। अर्चट आचार्य हरिभद्र के समकालीन प्रतीत होते हैं। धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दु पर अर्चट की टीका बौद्ध प्रमाणशास्त्र के लिये आधारभूत मानी जाती रही है। ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ के बौद्ध दार्शनिकों ने अपनी समालोचना का विषय मुख्य रूप से न्याय दर्शन को बनाया था, किन्तु अर्चट ने हेतुबिन्दु टीका में जैन दर्शन के स्याद्वाद सिद्धान्त का पैंतालीस पद्यों में खण्डन किया है। इसी प्रकार अर्चट ने द्रव्य एवं पर्याय की कथंचित् अव्यतिरेकता का प्रतिपादन करने वाले समन्तभद्र की आप्तमीमांसा के श्लोक का भी खण्डन किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' की समीक्षा करते हुए सत् को क्षणिक सिद्ध किया। बौद्ध दार्शनिकों के
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