Book Title: Jain Dharma Darshan evam Sanskruti
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 18
________________ भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन : ९ मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र में बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा कहाँ और किस रूप में मिलती है, इसका मूल सन्दर्भो सहित निर्देश डॉ. धर्मचन्द जैन ने अपने ग्रन्थ 'बौद्ध-प्रमाणमीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा' के परिशिष्ट तृतीय, अध्यायख, पृ. ३९४-३९६ पर किया है। इसमें दिङ्नाग की उपस्थापनाओं को आधार बनाकर ही बौद्ध दर्शन की समीक्षा की गई है। लगभग ईसा की छठी शती में 'विशेषावश्यकभाष्य' के गणधरवाद में बौद्धों के क्षणिकवाद, शून्यवाद आदि की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है। यद्यपि सिद्धसेन और समन्तभद्र ने अनेकांतवाद की स्थापना के अपने प्रयत्न में बौद्धों के सत् के परिवर्तनशीलता के सिद्धान्त और इसके विरोधी कूटस्थ नित्यता के सिद्धान्त के मध्य समन्वय का प्रयत्न कर बौद्ध मन्तव्य की सापेक्षिक सत्यता का प्रतिपादन अवश्य किया, फिर भी हरिभद्र के पूर्व तक प्राय: जैन दार्शनिक बौद्ध दर्शन को एकान्त क्षणिकवादी और अनात्मवादी मानकर उसकी समीक्षा करते रहे। तत्त्वार्थवार्तिक के लेखक अकलंक ने भी बौद्धों के तत्त्वमीमांसीय और ज्ञानमीमांसीय मन्तव्यों की समीक्षा की है। वस्तुतः भारतीय दर्शन के दर्शन-व्यवस्था युग और प्रमाण-व्यवस्था युग, दर्शन निकायों के पारस्परिक खण्डन-मण्डन के काल ही रहे हैं। जैन दार्शनिक भी बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा के सन्दर्भ में इसके अपवाद नहीं हैं। हरिभद्र के पूर्ववर्ती सभी जैन दर्शनिकों ने भी बौद्ध-दर्शन और उसकी प्रमाण-व्यवस्था की समीक्षा की और समीक्षा का यह क्रम आगे भी चलता रहा, हरिभद्र के पश्चात् भी विद्यानन्द, सुमति, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, माणिक्यनन्दी, अभयदेवसूरि रत्नप्रभूसूरि, चन्द्रसेनसूरि, हेमचन्द्र आदि जैन दार्शनिकों ने बौद्धों के क्षणिकवाद, सन्ततिवाद, प्रमाणलक्षण, प्रमाण की अव्यवसायात्मकता, प्रमाण का मात्र स्व-प्रकाशक होना, शब्द और अर्थ में सम्बन्ध का अभाव, प्रत्यक्ष की निर्विकल्पना, अपोहवाद, विज्ञानवाद, शन्यवाद आदि की जमकर समीक्षा की। इन सबके बीच आचार्य हरिभद्र का एक ऐसा व्यक्तित्व उभरा जिसने बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए उसमें निहित सत्यता का उदारहृदय से स्वागत किया और दिङ्नाग के न्यायप्रवेश पर निष्पक्ष टीका लिखी। खण्डन-मण्डन के इस युग में हरिभद्र का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान है-दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना की। शास्त्रवार्तासमुच्चय और षट्दर्शनसमुच्चय उनके इसी कोटि के ग्रन्थ हैं। दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में बौद्ध दर्शन यद्यपि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों में सर्वदर्शनसंग्रह को प्रथम स्थान दिया जाता है और उसे आदि शंकराचार्य की कृति बताया जाता है, किन्तु वह आदि शंकराचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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