Book Title: Jain Dharma Darshan evam Sanskruti Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath VidyapithPage 14
________________ भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन :५ बौद्ध धर्म-दर्शन में तार्किक शैली की दार्शनिक रचना का प्रारम्भ नागार्जुन से देखा जाता है। नागार्जुन की दार्शनिक रचनाओं में माध्यमिककारिका, युक्तिषष्टिका, विग्रहव्यावर्तिनी और बैदल्यसूत्रप्रकरण प्रमुख हैं। नागार्जुन की माध्यमिककारिका माध्यामिक सम्प्रदाय या शून्यवाद का प्रमुख ग्रन्थ है। जहाँ माध्यमिककारिका शून्यवाद के आधारभूत चतुष्कोटि-विनिमुक्त तत्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करती है, वहाँ विग्रहव्यावर्तिनी माध्यमिक परम्परा की प्रमाणमीमांसा का आधारभूत ग्रंथ है। जहाँ माध्यमिककारिका में नागार्जुन ने सत्, असत्, उभय और अनुभय- इन चार कोटियों से भिन्न परमतत्त्व (शून्यतत्त्व) के स्वरूप का निरूपण किया है, वहीं विग्रहव्यावर्तिनी में उन्होंने न्यायसूत्र के प्रमाणों की गंभीर समीक्षा की है। इस ग्रन्थ में नागार्जुन ने न्याय दर्शन द्वारा मान्य चार प्रमाणों का उपस्थापन कर उनका खण्डन किया है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नागार्जुन न्यायसूत्र एवं उनकी विषयवस्तु से परिचित थे, क्योंकि उन्होंने न्यायसूत्र में प्रतिपादित प्रमाणों को अपनी समीक्षा का आधार बनाया है। न्याय दर्शन में नागार्जुन के इस खण्डन का प्रत्युत्तर परवर्तीकालीन न्याय दार्शनिकों द्वारा न्यायसूत्रों की टीकाओं में दिया गया। विशेष रूप से उद्योतकर (छठी शती उत्तरार्ध) एवं वाचस्पति मिश्र (९वीं शती उत्तरार्ध) ने अपने ग्रंथों में नागार्जुन के मन्तव्यों का खण्डन किया है। नागार्जुन के पश्चात् मैत्रेय ने बौद्ध विज्ञानवाद पर अपने ग्रंथों की रचना की जिनमें बोधिसत्वचर्या निर्देश, सप्तदशाभूमि, अभिसमय-अलङ्कारिका आदि प्रमुख हैं। सप्तदशाभूमिशास्त्र में मैत्रेय ने वाद-विषय, वादाधिकरण, वादकरण आदि के निरूपण के साथ-साथ सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साधर्म्य, वैधर्म्य, प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम ऐसे आठ प्रमाणों का उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि मैत्रेय ने गौतम द्वारा प्रणीत न्यायसूत्र के उपमान प्रमाण का कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी वे जिन आठ प्रमाणों का उल्लेख करते हैं वे न्याय दर्शन से अवतरित प्रतीत होते हैं। नागार्जुन एवं मैत्रेय के पश्चात् बौद्ध विज्ञानवाद के प्रतिष्ठित आचार्यों में असंग और बसुबन्धु- इन दोनों भाइयों का नाम आता है। असंग की रचनाओं में 'योगाचारभूमिशास्त्र' एक प्रमुख ग्रंथ है। योगाचारभूमिशास्त्र में उन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम- ये तीन प्रमाण ही स्वीकार किये हैं। प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त साधर्म्य एवं वैधर्म्य को अनुमान का ही अंग माना है। इस प्रकार असंग अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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