Book Title: Jain Dharma Darshan evam Sanskruti
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 12
________________ भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में प्रतिपादित बौद्ध धर्म एवं दर्शन :३ धर्म-दर्शन तथा उसकी तत्त्वमीमांसा और प्रमाणमीमांसा सम्बन्धी मान्यताओं के निर्देश और उनकी समीक्षा उपलब्ध होती है, वहीं दूसरी ओर बौद्ध ग्रन्थों में भी अन्य धर्म-दर्शनों और उनकी मान्यताओं के उल्लेख मिलते हैं। १. बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में बासठ मिथ्यादृष्टियों के उल्लेख मिलते हैं, वहीं जैनग्रन्थों में मेरे अनुसार त्रेसठ मिथ्यादृष्टियों के उल्लेख मिलते हैं। जहाँ तक जैन ग्रन्थों का प्रश्न है उसमें ऋषिभाषित वज्जीपुत्त, सारिपुत्त और महाकाश्यप जैसे बौद्ध परम्परा के ऋषियों के उपदेश को श्रद्धापूर्वक उल्लेखित करता है और उन्हें अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकार करता है। त्रिपिटक साहित्य में भी हम वर्धमान आदि छः तैर्थिकों के सामान्य सिद्धान्तों के उल्लेख के साथ मात्र इतना संकेत पाते हैं कि इनकी मान्यताएँ समुचित नहीं हैं। कालान्तर में विशेष रूप से सूत्रयुग में हमें बौद्ध धर्म की दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षाएँ इन सूत्र-ग्रंथों- न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, सांख्यसूत्र आदि में उपलब्ध होने लगती हैं। __ भारतीय दार्शनिक चिन्तन के मूल बीज चाहे औपनिषदिक चिन्तन में उपलब्ध हों, किन्तु भारत में व्यवस्थित रूप से दार्शनिक प्रस्थानों का प्रादुर्भाव सूत्रयुग से ही देखा जाता है। सूत्रयुग में विभिन्न भारतीय दार्शनिक निकायों ने अपने-अपने सूत्र ग्रन्थों का निर्माण किया। जैसे- सांख्यसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, योगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि। इन ग्रन्थों में चिन्तकों ने न केवल अपनेअपने दर्शनों को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, अपितु अन्य दार्शनिक मतों का, उनका नामोल्लेख किये बिना यथावसर सूत्र रूप में खण्डन किया है, जैसे योगसूत्र के कैवल्यपाद के २०-२१वें सूत्र ‘एकसमये चोभयानवधारणम् चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धरतिप्रसंगः स्मृतिसंकरश्च' द्वारा बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ प्राचीन स्तर के सूत्र ग्रन्थों में बौद्धों के पंचस्कन्धवाद, क्षणिकवाद, संततिवाद आदि का खण्डन मिलता है, वहीं परवर्ती काल के सूत्र ग्रन्थों में विज्ञानवाद और शून्यवाद के भी खण्डन के सूत्र मिलने लगते हैं। बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा करते हुए यह कहा गया है कि यदि पूर्वक्षण वाले चित्त को उत्तरक्षण वाला चित्त जानता है, तो फिर उत्तरक्षण वाले चित्त को जानने वाले किसी अन्य चित्त की कल्पना करनी होगी और इससे अनवस्था एवं स्मृतियों के सम्मिश्रण सम्बन्धी दोष होगा। इसी प्रकार इसी योगसूत्र में बौद्धों के पंचस्कन्धवाद का भी खण्डन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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