Book Title: Jain Dharm ki Udarta Author(s): Parmeshthidas Jain Publisher: Johrimal Jain Saraf View full book textPage 6
________________ [21 हमारे अन्तिम पूज्य तीर्थंकर श्री महावीर भगवानके जीव ने सिंह पर्याय से उन्नति करते करते तीर्थंकर पद पाया है । और परमात्मा बने हैं । जिस समय इनका जीव सिंह पर्याय में था, उस समय की हिंसक क्रियाओं के विचार मात्र से ही घृणा होती है । परन्तु जैनधर्म के प्रताप से यह सिंह का जीव शुद्ध होते २ भगवान महावीर वन गया। बस, यह है जैनधर्म की उदारता और महानता ! आज इस विशाल जैनधर्म को इसके अंधश्रद्धालुओं या एकांत ठेकेदारों ने संकुचित धर्म वना रक्खा है । वे नहीं चाहते कि कोई दूसरा व्यक्ति इससे लाभ ले सके। यह उन लोगों की भूल कहो, अज्ञानता चहो, धर्मान्धता "हो, छुद्रता कहो, कृपणता कहो, कायरता कहो, या कहो. धर्म डूबने की कलुषित मनोवृत्ति - अतः कुछ भी सही । परन्तु दु:ख के साथ कहना ड़ता है कि उनके इन संकुचित विचारों ने यहां तक जोर पड़ा है कि वे अपने धर्मवन्धुओं तक वो धर्मपालन से वंचित करने पर तुले बैठे हैं । आज जैनसमाज में दस्रों भाइयों के देव पूजन का आन्दोलन इन्हीं महानुभावों की कृपा दृष्ट से हो उठा हुआ है। जनधर्म विशाल धर्म है, संसार व्यापी धर्म है, प्राणी मात्र धर्म और धर्म है वास्तव में आत्मीक । इस धर्म की विशालता या उदारता किसी के छुपने से नहीं छुप सक्नी । इसकी महानता का प्रकाश तो संसार भर में व्याप रहा है अध्यास्वाद की सुगन्धी चारों ओर फैल रही है। हमारे धर्मबन्धु श्री० पं“ परमेष्ठीदासजी सूरत ने निधर्मवी प्रभावार्थ 'जैनधर्म की उदा ता' नामक पुस्तक लिख है । इसमें . 博Page Navigation
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