Book Title: Jain Dharm ki Udarta Author(s): Parmeshthidas Jain Publisher: Johrimal Jain Saraf View full book textPage 5
________________ यह तो प्राय, गति, गावतलाता। जैनधर्म की उदारता पर दो शब्द संसार में यदि सार्वधर्म होने का महत्व किसी धर्म को हो सकता है तो वह केवल जैनधर्म ही है । जैनधर्म आत्मा की उन्नति का मार्ग है, आत्मोत्थान का सहकारी है और यही क्यों बल्कि संसारी आत्माओंको मुक्तात्मा अर्थात् परमात्माबनानेका साधन है। जैनधर्म की शिक्षा स्वावलम्बो बनाने वाली है। जैनधर्म प्राणी मात्र की उन्नति उनके अपने ही पैरों के बल खड़ा होने पर बतलाता है। किसी देवी, देवता या इन्द्र अहमिन्द्रके आश्रित नहीं बतलाता। जैनधर्म किसी वर्ण, जाति, कुल, सम्प्रदाय, गति, गोत्र या व्यक्ति विशेष के लिये नहीं है। यह तो प्राणीमात्र के लिये है। जैनधर्म से जिस प्रकार एक ब्राह्मण, क्षत्री या वैश्य लाभ उठा सकता है उसी प्रकार शूद्र, म्लेच्छ, चाण्डाल और पापी से पापी भी उठा सकता है और हां, मनुष्य ही क्यों पशु पक्षी तक भी लाभ उठा सकते हैं। जैन शास्त्रों में इस प्रकार के हजारों उदाहरण लिखे मिलेंगे। और हां, प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ? जहां पर पूज्य तीर्थङ्करों के समवशरण का वर्णन किया गया है वहां पर पशु परियों के समवशरण में सम्मिलित होने का भी उल्लेख है। मनुष्यों में कोई भेद भाव नहीं दिखाया । समवशरण में जो कोठे मनुष्यों के लिये बनते थे मनुष्य मात्र उनमें बैठकर आर भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर अपने कल्याण का मार्ग पाते थे। ___ यदि जैनधर्म का कोई महत्व है तो वह यही है कि इस धर्म में प्राणी मात्र को धर्मसाधन के पूर्णाधिकार दिये गये हैं और इसको पालन करते हुये सर्व जीव अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं।Page Navigation
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