Book Title: Jain Dharm Vikas Book 02 Ank 02
Author(s): Lakshmichand Premchand Shah
Publisher: Bhogilal Sankalchand Sheth

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Page 8
________________ જૈનધર્મ વિકાસ. यत्किंचित् रूप में अवश्य समझ सकते हैं। सतत धर्मभावनाओं को जागृत रखने का सुंदर और सर्व सुगम्य साधन यदि दुनिया में कोई हो सकता है तो एह केवल मूर्ति ही है। जिस प्रकार शास्त्र जिनप्रणीत वाणी रूप होने से आत्म कल्याण और यथार्थ वस्तु ज्ञान कराने में निमित्त भुत हैं उसी प्रकार प्रभु प्रतिमा भी अरिहंत मूर्तिवत् होने से आत्म कल्याण में निमित्त भूत है। इसके आधार से हम अरिहंत की अचलावस्था, ध्यानस्थ स्थिति ओर शान्तमुद्रा को सुगमता से पहिचान सकते हैं। मानवता के साथ मूर्ति पूजा का संबंध अर्वाचीन नहीं किंतु समसामयिक पुरातन ही है। व्यवहारिक, धार्मिक एवं नैतिक सभी कार्यो में मूर्ति का अवलंबन आवश्यक माना गया है। सकल चराचर रूप जगत् ही मूर्तिमय है। अमूर्त पदार्थ का स्वरूप ज्ञान करने के लिये भी मूर्ती का आधार लेना ही पड़ता है। जब तक उसका आधार न लिया जायगा तब तक अमूर्त का ज्ञान भी असंभव ही है। इस प्रकार शास्त्र सम्मत मानव जीवन का धर्म के साथ और धर्म का मूर्ती के साथ परस्पर धनिष्ठ और विश्वव्यापक संबंध प्रमाण सिद्ध है। मूर्ति और धर्म संस्कृति जीवन का धर्म के साथ और धर्म का मूर्ति के साथ संबंध सिद्ध होजने के पश्चात् अब हमें यह जानने की परमावश्यकता है कि मूर्ति मानने से या मूर्ति का अवलंबन लेने से धर्मसंस्कृति, मानव संस्कृति और व्यवहार संस्कृति पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? अथवा अब तक कितना प्रभाव पड़ा है ? क्या मूर्ति के द्वारा संस्कृति का टिकाव हो सकता है ? इत्यादि शंकाओं पर भी किंचित् भुलक डालना कर्तव्य रूप हो जाता है इतना ही नहीं किंतु प्रासंगिक होने से अनिवार्य भी है: बंधुओ। प्रत्येक प्राणीका जीवन संस्कृति प्रधान है । संस्कृति के अनुकूल ही उस का जीवन बनता जाता है। संस्कृति का प्रभाव पड़े विना भी कदापि नहीं रहता है। मानव जीवन भी इससे वंचित नहीं माना जा सकता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने से उस पर संस्कृति का असर भी अत्यधिक मात्रा में और वृढता के साथ पड़ता है। जब मानव शरीर ही मूर्ति मय है तो मूर्ति के संस्कारों का उसके हृदय में स्थान होना अस्वभाविक नहीं है यह तो प्रकृति दत्त गुण ही है। जिसके हृदय में एतदविषयक संस्कार नहीं उसकी मानवता शंकास्पद स्थिति में ही है। ऐसा मानने में किसी प्रकार का एतराज नहीं हो सकता है। चाहे ये संस्कार प्रकट रूप में या अप्रकट रूप में किंतु मूर्ति को ही सिद्धि के साधक हैं। अपूर्ण.

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