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१. जिस में रूखा, चिकना, ठंडा, गर्म, हलका, भारी नरम, कठोर, ये आठ स्पर्श व सफ़ेद, काला, पीला, लाल नीला, ऐसे पांच वर्ण व खट्टा मीठा, चर्परा, तीखा, रूपायला, ये ५ रस व सुगंध दुर्गंध. यह दो गंध. ये बीस गुणकी श्रवस्थायें पाई जाये, उसकी पुद्गल कहते हैं। ये ही स्पर्श, रस गंध, वर्ण, पुद्गल के विशेष गुण हैं।
जो कुछ हम अपनी पांचों इन्द्रियों से ग्रहण करते है म्मच पुद्गल है । ये पांचों इन्द्रियां और यह हमारा शरीर भी पुद्गल है, कर्मों का बन्धन भी पुद्गल रूप है। कर्मधर्मणाएं अनन्त परमाणुओं के बने हुए स्कन्ध है, सूक्ष्म हैं। इससे इन्द्रियगोचर नहीं हैं। इन्हीं से कर्म बनते हैं । बहुत से सूक्ष्म पुद्गल इंद्रियों से नहीं ग्रहण मे आते हैं ।
२ धर्मास्तिकाय - यह लोक व्यापी अमृतक द्रव्य है जिन का विशेष गुण जब जीव और पुद्गल अपनी शक्ति से गमन करें तब बिना प्रेरणा के उनकी सहाय करना है ।
३ श्रधर्मास्तिकाय - एक लोक व्यापी श्रमूर्तीक द्रव्य है जिस का विशेष गुण जब जीव पुद्गल अपनी शक्ति से ठहरते हैं तब बिना प्रेरणा के उनकी सहाय करना है ।
४. श्राकाश-एक सबसे बड़ा अनंत अमूर्तीक द्रव्य है. जिस का विशेष गुण सर्व द्रव्यों को उदासीन भाव से स्थान देना है ।
५. कालद्रव्य - श्रमूर्तीक एक परमाणु या प्रदेशके बराबर गणना में असंख्यात हैं। इनको कालाणु भी कहते हैं । इन का विशेष गुण सब द्रव्यों की अवस्थाओं के पलटने में उदासीन भावसे सहायक होना है । समय, त्रिपल, पल आदि इसकाल