Book Title: Jain Dharm Prakash
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Parishad Publishing House Bijnaur

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Page 272
________________ (२४६) आठवीं पृथ्वी ४५ पैतालिस लाख योजन चौड़ी अर्ध चन्द्राकार सिद्धशिला है। इस ही की सीध में तनुवातवलय के बिल्कुल ऊपरी हिस्से में ठीक वीचमें सिद्धोंका स्थान है, क्योंकि जहां तक धर्मद्रव्य है, वहीं तक मोक्ष प्राप्त जीवों का गमन हो सकता है। पैंतालिस लाख योजन का ढाई द्वीप है । ढाई द्वीप से ही सिद्ध हुए है होते है व होंगे। इससे सिद्धक्षेत्र सिद्धों से परिपूर्ण भरा है।। देवों के इन्द्रियसुखों के भोगने की शक्ति अधिक है, शरीर को बदलने व अनेक रूप करलेने की शक्ति है, बहुत दूर तक जानने व जाने की शक्ति है, इस कारण जो जीव पुण्यास्मा हैं ने देवगति में जन्म पाते हैं । जो जीव अन्यायी हिंसक पापी है, वे नर्कगति में जन्मते हैं। जिनके पाप कम है वेमध्यलोक में पंचेन्द्रिय पशु होते हैं । जिनके पुण्य कर्म है, वे मनुष्य होते हैं । इस तरह यह जगत की रचना पुण्य-पाप के फल से विचित्र है। जो सर्व कर्म रहित हो जाते हैं वे सिद्ध होकर अनन्तकाल तक सिद्धक्षत्र में तिष्ठते हैं। पांचवें स्वर्गके अन्तमें लौकान्तिक देव रहतेहैं जो वैरागी होते हैं, देवी नहीं रखते । इन में सब वरावर हैं, पाठ सागर की आयु होती है, तीर्थङ्कर के तप समय वैराग्य-भावना भाते वक्त तीर्थङ्कर की स्तुति करने आते हैं । ये एक भव लेकर मोक्ष जाते हैं।

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