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होनी चाहिये, किन्तु हम किसी समय निर्वलता के संयोगों में पड़ गये-मान लो दो दिन तक और भोजन न मिला-तो वह पुष्ट औषधीके परमाणु उस समय पुष्टि न कर यों ही गिर जावेगे । जैसे कोई औषधी चार दिन, कोई चार मास कोई चार वरस में फल दिखाती है, ऐसे ही कर्मों में है।
हम पहिले बता चुके है कि कोई परमात्मा हमको फल देने के झगड़े में नहीं पड़ता-स्वाभाविक नियम से ही हम आप ही कर्म वांधते और आप ही फल भोगते हैं; जैसे हम आप ही मदिरा पीते हैं आप ही बेहोश हो जाते हैं।
एक दफे कर्म वांध लेने के पीछे जैसे हम अपने अशुभ भावों से उन कर्मोंकी स्थिति व पाप कर्मों के अनुभागको बढ़ा कर पुण्य कमों के अनुभागको कम कर सकते व पुण्य कमों को पाप कर्मों में बदल सकते हैं, वैसे ही निर्मल भावों से स्थिति को घटा देते, पुण्य कर्मों में अनुभाग वढा लेते तथा पाप कर्मों का अनुभाग कम करते तथा पाप कर्मों को पुण्य में बदल सकते हैं, जैसे कि कोई जहरीला पदार्थ खाने के बाद फिर उसका विरोधी खाले तो उसका असर हट जाता या कम हो जाता है। जो कर्म देरमें फल देने वाले थे वे बाहरी निमित्त पाकर जल्दी भी फल दे देते हैं। मुख्य हमारा पुरुषार्थ है।
४२. पुरुषार्थ और दैव का स्वरूप
आत्मा के गुणोंकी कर्मों के दव जानेसे व नाश होजाने से जितनी प्रगटता होती है उस को पुरुषार्थ कहते हैं तथा जितना कर्म अपना फल देता रहता है उस फल को दैव कहते हैं। वास्तव में पुरुषार्थ प्रात्मा का गुण है, देव ही पुण्य पाप