Book Title: Jain Dharm Prakash
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Parishad Publishing House Bijnaur

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Page 266
________________ (२३८) भाग है, पहले भाग को चित्रा पृथ्वी व अन्त के भागको शैला पृथ्वी कहते हैं। खरभाग व पंकभाग में देव रहते हैं । अब्बहुलभाग में पहला नर्क है। आगे की छः पृथ्वियों में छः नर्क और हैं । इन सात नकों में नारकियों के उपजने व रहने योग्य क्षेत्रों को बिले कहते हैं । वे कोई संख्यात कोई असंख्यात योजन चौड़े हैं । सातो नरकों में कुल ८४ चौरासी लाख बिले नीचे प्रमाण है - पहला नर्क-३० लाख दूसरा नर्क-२५ लाख तीसरा नर्क-१५ लाख चौथा नर्क-१० लाख पाँचवां नर्क-३ लाख छठा नर्क-५ कम एक लाख सातवां नर्क- केवल पाँव . पहली पृथ्वी से पांचवीं के ३ चौथाई भाग तक बहुत उम्णता है, फिर सातवीं तक बहुत शीत है । जो प्राणी अत्यत परिग्रह में मोही, अन्यायकर्ता व हिंसक है, वे इन नकों में जाकर अन्मुहूर्त के भीतर पैदा हो जाते है। इन का शरीर वैक्रियिक होता है, जिसमें बदलने की शक्ति है । इनके उपजने के स्थान ऊँट आदि के मुख के सदृश छत में छींके के समान होते हैं। वहां से गिर कर गंद के समान उछलते है। इन का शरीर पारे के समान होता है जो टुकड़े २ होने पर फिर मिल जाता है। इन नारकियों के अत्यन्त क्रोध होता है, परस्पर एक दूसरे को कष्ट देते हैं। आपही कभी सिंह, नागादि रूप

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