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जैसे मनुष्य के दश प्राण है व उपयोगी है इससे मनुष्य घात से विशेष पाप होगा। जलादि एकेन्द्रिय जीवों के श्रारम्भ विना काम नहीं चल सकता, इस से इनकी हिंसा से कपाय कम होने से पाप कम है । वास्तव में जहां कपाय है, वहां भाव व द्रव्य प्राणकी हिंसा है। जहां कषाय नहीं वहां भाव व द्रव्य हिंसा नहीं है । जितनी हिंसा छोड़ेंगे उतना संवर होगा। ( २ ) सत्यत्रत -- प्रमाद सहित होकर हानिकारक वचन कह देना सो असत्य है । असत्य का त्याग सो सत्य है । (३) श्रचौर्यव्रत - प्रमाद सहित होकर दूसरे की वस्तु गिरी पड़ी भूली बिसरी उठा लेना व विन दी हुई लेना चोरी है। चोरी का त्याग अचौर्यव्रत है ।
( ४ ) ब्रह्मचर्य - मैथुन करना अब्रह्म है । श्रब्रह्मका त्याग ब्रह्मचर्य है ।
(५) परिग्रह त्याग - चेतन अचेतन पर पदार्थों में मूर्छा ममत्व करना परिग्रह है । उसका त्याग परिग्रह त्याग* प्रमत्त योगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥
( तत्वा० श्र० ७ ) श्रप्रादुर्भाव खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ (पुरुषार्थ सिद्धय पाय)
अर्थात् --प्रमाद सहित मन, वचन, काय से प्राणों का पीड़न हिंसा है । निश्चय से रागादि भावों का न प्रगट होना. अहिंसा है तथा उन्ही का पैदा हो जाना हिंसा है, यह जैन शास्त्र का खुलासा है ।