Book Title: Jain Dharm Prakash
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Parishad Publishing House Bijnaur

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Page 262
________________ . (२३४) वर्तमान प्रचलित भूगोल देखी हुई जमीन का है। जैन जगत् की रचना का वर्णन सदा स्थिर रचना (जो कहीं कहीं बदलते रहने पर भी अपनी मूल स्थिति को नहीं बदलती है) को मात्र बतलाने वाला है तथा जो वर्तमान भूगोल है वह बहुत थोड़ा है और जैन भूगोल बहुत बड़ा है। पाश्चिमात्य विद्वान खोज कर रहे हैं। संभव है अधिक भूमि का पता लगजावे। इस लिये पाठकों को उचित है कि जैन जगत् की रचना के शान को प्राप्त करके उसके प्रमाणभून होने के लिये भूगोलवेत्ताओं की खोज की राह देखें। जैनशास्त्रों में सजीव वृक्ष, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि में जीवपना बतलाया है । सायंस [विज्ञान] ने पृथ्वी व वृक्ष में जीव है यह बात तो सिद्ध करही दी है, संभव है शेष तीन में भी जीवपना कालांतर में सिद्ध हो जाय । इसी तरह भूगोलं की रचना के सम्बन्ध में भी सन्तोष रखना चाहिये। यह जगत् आकाश, काल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गल और जीव इन छा द्रव्योंका समुदाय है। इनमें क्षेत्र की अपेक्षा आकाश सबसे बड़ा है, अनन्त है, मर्यादारहित है। उसके मध्य में जितनी दूर तक आकाश में शेष जीवादि पाँच द्रव्य पाए जाते हैं उस क्षेत्र को लोक ( Universe) कहते हैं तथा उतने आकाशके विभाग को लोकाकाश कहते हैं, शेष खाली आकाश को अलोकाकाश कहते हैं। इस लोककी लम्बाई चौड़ाई, ऊँचाई व आकार इसी तरह का जानना चाहिये जैसा कि सामने दिया है। यह लोक डेढ़ मृदंग के आकार है । प्राधे मृदंग के ऊपर सारा मृदंग रख देने से लोक का आकार बन जाता है। अथवा एक पुरुष पैरों

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