Book Title: Jain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Dharmoday Sahitya Prakashan

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Page 5
________________ में बनाये गये विचारों के प्रभाव में तथा अक्सर पारम्परिक या भावनात्मक पूर्वाग्रहों के बहाव में विद्वान् और इतिहासकार प्रायः जैनधर्म और उसके इतिहास से न्याय करने में असफल हुए हैं।" ___ 18 वीं सदी के अन्तिम चौथाई भाग में आरम्भिक यूरोपीय विद्वानों ने आधुनिक वैज्ञानिक आधार से भारत के इतिहास का पुनर्निमाण और सङ्कलन का कार्य सर्वप्रथम प्रारम्भ किया था। वास्तव में उन्होंने जैनधर्म पर एक अलग सम्प्रदाय की तरह पहले ध्यान ही नहीं दिया। उस समय उनकी मुख्य रुचि बौद्ध, ब्राह्मण और इस्लाम धर्म में थी, जो उनके लिए भारत के भूत और वर्तमान के अकेले प्रतिनिधि थे। लेकिन इनके इतिहास के लिए भी विशेषतः हिन्दुओं के लिए वे देशी स्रोतों पर भरोसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्होंने पहले से ही मान लिया था कि भारतीयों में कभी भी कोई ऐतिहासिक संवेदना नहीं रही है तथा उनके पास नाममात्र के लिए भी ऐतिहासिक अभिलेख और अन्य विश्वसनीय ऐतिहासिक स्रोत नहीं हैं, जिससे वे स्वयं के इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकें। अतः वे इस निष्कर्ष पर आये कि इस कार्य के लिए उन्हें आवश्यक रूप से कहीं और देखना चाहिये। उन्हें अधिक दूर नहीं खोजना थी। चौथी-पाँचवी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर उनके समय तक के अनेक विदेशियों के भारत के बारे में वृत्तान्त उनके बचाव के लिए शीघ्र उपस्थित हो गये। प्रारम्भिक यूनानी लेखक विशेषतः वे जो अलेक्जेंडर महान् के पूर्वी सैन्य अभियान (326 ई.पू.) में साथ थे अथवा बाद में राजनैतिक राजदूत की तरह भारत आये थे, जैसे मेगस्थनीज (305 ई.पू.), चीनी यात्री जैसे फाह्यान (400 सन्), ह्वेनसांग (629 सन्) और ईटसींग (695 सन्), कुछ अरबी व्यापारी जिन्होंने 8वीं से 13वीं शताब्दी तक डेकन राज्य से व्यापार किया, भटके हुए दर्शनार्थी जैसे मार्को पोलो (1288-1293 सन्) और इब्न बतूता (1323 सन्),

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