Book Title: Jain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Dharmoday Sahitya Prakashan

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Page 31
________________ एक अन्य महत्त्वपूर्ण चिंतक भी पाते हैं, “वेदों और पुराणों में जैनधर्म के अनगिनत उल्लेखों के अतिरिक्त, एक अन्य साधारण तथ्य दर्शाता है कि जैनदर्शन उतना ही प्राचीन है, जितना हिन्दूदर्शन। अध्यात्म विद्या के विकास के प्रारम्भिक युग का लक्षण है कि गुणों की श्रेणी परिभाषित नहीं है। उदाहरण के लिए वेदान्त में ब्रह्मा को उनके स्वाभाविक गुणों की तरह सत्ता, ज्ञान और सुख (सत्, चित्, आनंद) का धारक नहीं बताया है, लेकिन वह स्वयं ही सत्तागम्य, ज्ञानमय और आनन्दस्वरूप है (सच्चिदानंद)। जैन अध्यात्म विद्या में भी समान ही वर्णन है। वह धर्म और अधर्म को गुण की बजाय आधार मानता है, जिससे आत्मा सम्पर्क में आता है। अन्य तथ्य है उसकी नायक पूजा, पूर्णता प्राप्त मनुष्यों की देवतातुल्य पूजा। और ऐसी पूजा सभी पुरातन धर्मों से विलक्षण है। अन्ततः उनकी सर्वचैतन्यवादी मान्यता, पुनः एक पुरातन भाव है।" वास्तव में जैसा डॉ. एडवर्ड थोमस जैनधर्म की सरलता और अत्यधिक प्राचीनता के विषय में कहते हुए टिप्पणी करते हैं, “मूलभूतरूप से अधिक सरल मान्यता अधिक जटिल मान्यता के पूर्वज के रूप में मुख्यतया स्वीकारनी चाहिये।" मेजर जनरल फोरलोंग पूछते हैं, “जैनधर्म से अधिक सरल और क्या हो सकता है, चाहे वह पूजा, रीति-रिवाज़ या नैतिकता में ही क्यों न हो।" सम्पूर्ण परिस्थितियों का पुनरवलोकन करते हुए प्रो. एम. एस. रामास्वामी अयंगर उद्धृत किये जा सकते हैं, जो कहते हैं "प्राचीन भारतीय इतिहास के वैज्ञानिक छात्र के लिए जैनों के इतिहास का प्रारम्भ जैनधर्म के संस्थापक माने जानेवाले महावीर के समय से होता है। मान्यता के उद्भव से सम्बन्धित इस विचार ने दुर्भाग्यवश विद्वानों को यह मानने के लिए प्रेरित किया कि जैन परम्परा और साहित्य इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अविश्वसनीय और अनुपयोगी हैं। 31

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