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साहित्य में व्रात्य अथवा वृषल कहलाते थे। वे अपने अच्छी प्रकार से बने हुए नगर और अहिंसक, बलिरहित संस्कृति के साथ देशी प्रतिद्वन्द्वी और शत्रु थे, जिनसे प्रथम आर्यों को इस देश में स्थापित होने और फैलने के लिए भिड़ना पड़ा। वास्तव में जैनपरम्परा के अनुसार भगवान् ऋषभ का पुत्र राजकुमार द्रविड़ इस वंश का प्रारम्भकर्ता था, जो बाद में द्रविड कहलाने लगे। माना जाता है कि प्राचीनकाल के कई द्रविड राजकुमार जैन साधु बन गए और आज तक भी पूजे जा रहे हैं।
मेजर जनरल जे. जी. आर. फोरलॉन्ग अपने सत्रह वर्षों से अधिक के अध्ययन और शोध के परिणामस्वरूप इंगित करते हैं कि "लगभग 1500 से 800 ई. पू. और वास्तव में अज्ञात समय से सम्पूर्ण उत्तरी, पश्चिमी, मध्य-उत्तरी भारत तुरानियों के द्वारा शासित था। सुविधाजनकरूप से जो द्रविड कहलाते थे और वृक्ष, सर्प और चिह्न को पूजते थे, परन्तु उस समय सम्पूर्ण उत्तरी भारत में एक प्राचीन और अत्यन्त सङ्गठित धर्म, दर्शन, नैतिक आचार और कठोर तपस्या वाला जैनधर्म मौजूद था, जिसमें से स्पष्टरूप से ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म के प्रारम्भिक तप की रूपरेखा विकसित हुई। आर्यों के गंगा अथवा सरस्वती तक पहुँचने से बहुत पहले ही 8वीं अथवा 9वीं शताब्दी ई. पू. के तेईसवें बुद्ध पार्श्व से पहले कुछ बाईस प्रसिद्ध बुद्ध, संन्यासी अथवा तीर्थङ्करों के द्वारा जैन शिक्षित हो चुके थे। वह पार्श्व समय के लम्बे अन्तरालों में निवास करनेवाले अपने सभी पूर्वज पवित्र ऋषियों के बारे में और पूर्वो अथवा पुराणों के नाम से विख्यात तत्कालीन कई शास्त्रों के बारे में जानता था। वे प्राचीन हैं, जो कि युगों-युगों से विश्वस्त साधुओं, वानप्रस्थों अथवा वनवासियों की स्मृति को सौंप दिये जाते थे। यह अधिक विशिष्टरूप से एक जैन आदेश है, जो उनके सभी बुद्धों के द्वारा और व्यक्तिगतरूप से 6वीं
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