Book Title: Jain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Dharmoday Sahitya Prakashan

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Page 18
________________ इन व्रात्यों के बारे में बोलते हुए डॉ. के.पी. जयस्वाल ने कहा, "वे व्रात्य अथवा अब्राह्मणिक क्षत्रिय कहलाते हैं। उनकी प्रजातंत्रात्मक सरकार थी, उनके स्वयं के तीर्थ थे, उनकी अवैदिक पूजा थी, उनके स्वयं के धार्मिक नेता थे और वे जैनधर्म को संरक्षण देते थे।" अतः डॉ. ए. ग्युरिनोट के शब्दों में, “पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे, अब इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है।" और उनकी मान्यता न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों में व्याप्त थी, बल्कि इस देश की सीमाओं के पार भी फैल गयी थी, इस बात को बताने के प्रमाण हैं। गौतम बुद्ध से बहुत पहले जैनधर्म के प्रचलन के बारे में लिखते हुए सर पी. सी. मोघ अवगत कराते हैं कि लगभग 1885 में प्रो. बील ने रा'यल एसियाटिक सोसाइटी से कहा कि निःसंदेह मध्य रशिया में शाक्य मुनि गौतम के द्वारा बौद्धधर्म के प्रचार से बहुत पहले ऐसी मान्यता थी। सर हेनरी रौलिनसन ने भी रॉयल ज्योग्रफीकल सोसाइटी के कार्यवाही आलेख (सित. 1885) और अपनी “सेन्ट्रल एशिया" (पृ. 246) में कश्यपों के अस्तित्व को दिखाते हुए बाल्ख में एक नये विहार और ईंटों में अन्य स्मारकों के अवशेषों पर ध्यान आकर्षित किया। कश्यप एक प्राचीन जैन मुनि का नाम और कई तीर्थङ्करों का गोत्र होने के अलावा पार्श्वनाथ का भी गोत्र था। आदिपुराण के अनुसार कश्यप, जिसका अन्य नाम मघवा था, वह उरग वंश (प्राचीन नाग परिवार की एक शाखा) का संस्थापक था, जिसमें तीर्थङ्कर पार्श्व जन्मे थे। भौगोलिक नाम कास्पिया कश्यप का एकार्थक है। ईसा की 18

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