Book Title: Jain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Author(s): Jyotiprasad Jain
Publisher: Dharmoday Sahitya Prakashan

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Page 17
________________ इत्यादि) कहते हैं, “महावीर के उद्भव से पूर्व, जिस मान्यता के वे अन्तिम प्रतिपादक थे, वह वैशाली और आस-पास के देश में कुछ प्राचीन रूप में प्रचलित रही है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा मालूम होता है कि यह धर्म उत्तर-पूर्वीय भारत विशेषतः वैशाली के रहने वालों के मध्य क्षत्रिय लोगों द्वारा स्थिर और स्थापित किया गया था। आचारांग सूत्र से हमें पता चलता है कि महावीर के माता-पिता पार्श्व के पूजक और श्रमणों का अनुसरण करने वाले थे।" महाभारतकालीन धार्मिक गुरुओं के बारे में बोलते हुए प्रो. जे. सी. विद्यालंकार कहते हैं, “ऐसा एक महान् सुधारक तीर्थङ्कर पार्श्व ईसा पूर्व 8वीं-9वीं शताब्दी में उत्कर्ष पर था। उसके पिता अश्वसेन वाराणसी (बनारस) के राजा थे और उसकी माता का नाम वामा था। जैन मानते हैं कि उनका धर्म बहुत प्राचीन है और महावीर के पहले तेईस अन्य तीर्थङ्कर हो चुके थे। इस मान्यता को एकदम त्रुटिपूर्ण और आधारहीन ठहराना और सभी पूर्व तीर्थङ्करों को काल्पनिक और अनैतिहासिक ठहराना न्याससंगत और उचित नहीं है। इसमें कुछ भी अविश्वसनीय नहीं है। भारत का प्रारम्भिक इतिहास जैनों से उतना ही सम्बन्धित है, जितना वेद को माननेवालों का, क्योंकि वर्तमान आधुनिक आलोचकों ने तीर्थङ्कर पार्श्व की ऐतिहासिकता स्वीकार कर ली है। अन्य तीर्थङ्करों के वृत्तान्त पौराणिक कथाओं में इतने उलझे हुए हैं कि अभी तक उनका पुनर्निर्माण नहीं हुआ। लेकिन महावीर और बुद्ध से भी पहले वैदिक मान्यता से भिन्न सम्प्रदाय भारत में था, इस तथ्य के निश्चित प्रमाण हैं। बुद्ध के जन्म से पूर्व अर्हत और उनके चैत्य मौजूद थे। (बुद्ध स्वयं ही महावीर के वंश लिक्ष्वियों और उनके धर्म का संकेत देते हैं।) उन अर्हतों और चैत्यों को माननेवालों को व्रात्य के नाम से जाना जाता है, जिनका अथर्ववेद में भी उल्लेख है।"

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