Book Title: Jain Dharm Prachintam Jivit Dharm Author(s): Jyotiprasad Jain Publisher: Dharmoday Sahitya Prakashan View full book textPage 7
________________ आदि कई विषयों को, जिन्हें वे स्वयं महसूस करते थे, न तो वे समझ ही पाते और न ही ठीक ढंग से व्याख्या ही कर पाते थे। तथापि इस विशाल, भिन्न और प्राचीन उपमहाद्वीप के ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के लिए ये वर्णन सर्वाधिक प्रामाणिक और एक मात्र भरोसेमन्द स्रोत माने गये, जबकि लिखित होने पर भी देशी स्रोत और परम्पराएँ अविश्वसनीय, काल्पनिक, अक्सर मनगढन्त या पूर्वी आवारा कल्पनाओं का परिणाम माने गये। अनेक प्राचीन स्मारक, पुरावशेष, शिलालेख और नये साहित्यिक प्रमाण शीघ्र ही प्रकाश में आने लगे, जो भारतीय परम्परा एवं अन्य स्रोतों का समर्थन करते प्रतीत हुए। इतने पर भी इन्हें तब ही और उतना ही प्रमाणित किया जा सका, जब और जितना इन्हें उनके पसंदीदा विदेशी वृत्तान्तों द्वारा संपुष्ट किया गया। अतः आश्चर्य नहीं है कि आधुनिक भारतीय इतिहास की बुनियाद ही प्रायः मिथ्या एवं कामचलाऊँ सिद्ध हुई और कई गलत विचार, विकृतियाँ या तथ्यों के मिथ्या कथन वर्तमान की भारतीय इतिहास की पुस्तकों में अपना रास्ता बना सके। __ यद्यपि अधिकांश विदेशी वृत्तान्तों में प्रारम्भिक काल की शुरूआत से ही जैन और उनके धर्म को प्रायः उल्लिखित किया है, परन्तु प्रायः भाषा और लेखकों की समझ की कठिनाई के कारण वे इस स्वरूप में थी कि अपर्याप्त जानकारी और ज्ञान की कमी से बाधित प्रारम्भिक पूर्वी विद्वान् उन्हें ठीक से भाषान्तरित नहीं कर सके और जैनधर्म व जैनों को पहचानने में असफल हुए। उन्नीसवीं सदी की दूसरी चौथाई तक भी वे इस धर्म पर ध्यान देने में सहायक नहीं हुए। लेकिन दुर्भाग्यवश बौद्धधर्म से कुछ बिन्दुओं पर आध्यात्मिक साम्य से भ्रमित होकर वस्तुतः रूढिबद्धता के कारण उन्होंने शीघ्र ही अंदाजा लगाया कि यह बौद्धधर्म के बाद के एक उद्गम के सिवाय कुछ भी नहीं है।Page Navigation
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