Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 18
________________ सद्दाल पुत्त के लिये, स्त्री (चन्दनवाला) के लिए अध्यात्म साधना का रास्ता खोल दिया। आदर्श समाज कैसा हो, इस पर भी महावीर की दृष्टि रही। इसीलिए उन्होने व्यक्ति के जीवन मे व्रत-साधना की भूमिका प्रस्तुत की। श्रावक के बारह व्रतो मे समाजवादी समाज-रचना के अनिवाय तत्त्व किसी न किसी रूप मे समाविष्ट हैं। निरपराधो को दण्ड न देना, असत्य न बोलना, चोरी न करना, न चोर को किसी प्रकार की सहायता देना, स्वदार-सतोष के प्रकाश मे काम-भावना पर नियन्त्रण रखना, आवश्यकता से अधिक सग्रह न करना, व्यय-प्रवृत्ति के क्षेत्र की मर्यादा करना, जीवन मे समता, सयम, तप और त्याग वत्ति को विकसित करना-इस व्रतसाधना का मूल भाव है। कहना न होगा कि इस साधना को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति, जिस समाज के अग होगे, वह समाज कितना आदर्श, प्रगतिशील और चरित्रनिष्ठ होगा । शक्ति और शील का, प्रवत्ति और निवृत्ति का यह सुन्दर सामजस्य ही समाजवादी, समाजरचना का मूलाधार होना चाहिये । महावीर की यह सामाजिक क्रान्ति हिंसक न होकर अहिंसक है, सघर्षमूलक न होकर समन्वयमूलक है । ___ आर्थिक क्रान्ति महावीर स्वय राजपुरुष थे। धन, सत्ता, सम्पत्ति और भौतिक वैभव को उन्होने प्रत्यक्ष देखा था। फिर भी उनका निश्चित मत था कि सच्चे जीवनानद के लिये आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं । आवश्यकता से अधिक सग्रह करने पर दो समस्यायें उठ खडी होती हैं। पहली समस्या का सम्बन्ध व्यक्ति से है, दूसरी का समाज से। अनावश्यक सग्रह करने पर व्यक्ति लोभ-वृत्ति की ओर अग्रसर होता है और समाज का शेष अंग उस वस्तु विशेष से वचित रहता है। फलस्वरूप समाज मे दो वर्ग हो जाते हैं-एक सम्पन्न, दूसरा विपन्न और दोनो मे संघर्प प्रारम्भ होता है। कार्ल मार्क्स ने इसे वर्ग-सघर्ष की सज्ञा दी है, और इसका हल हिंसक क्रान्ति मे ढढा है। पर महावीर ने इस आर्थिक वैषम्य को मिटाने के लिए अपरिग्रह और परिग्रह की मर्यादा निश्चित करने की विचारधारा रखी । इसका सीधा अर्थ है-ममत्व को कम करना, अनावश्यक सग्रह न करना । अपनी जितनी आवश्यकता हो, उसे पूरा करने की दृष्टि से नीतिपूर्वक आजीविका चलाना। श्रावक के बारह व्रतो मे

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