Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 131
________________ ४. सुलीन दशा-इस दशा का मन शुभ एव पवित्र भावनाओ मे स्थित रहकर एकाग्रता व दृढता प्राप्त करता है। ध्यान-साधना का मुस्य लक्ष्य मन को सुलीन दशा मे अवस्थित करना है। - आज का मानस चचल, अस्थिर, अनुशासनहीन और उच्छ खल है । ध्यान उसमे स्थिरता और सन्तुलन की स्थिति पैदा करता है। आज का व्यक्ति गैरजिम्मेदार बनता जा रहा है। उसमे कार्य के प्रति लगन, तल्लीनता और उत्साह नहीं है । वह अपने ही कर्तव्यो के प्रति उदासीन बन गया है । इसका मुख्य कारण है चित्त की एकाग्रता का अभाव । इस एकाग्रता को लाने के लिए ध्यानाभ्यास आवश्यक है । पर यह ध्यानाभ्यास आसन और प्राणायाम तक ही सीमित न रह जाय । इसे यम-नियमादि से तेजस्वी बनाना होगा। चित्तवृत्ति को पवित्र और सयमित करना होगा। मन की गति को मोडना होगा। उसे स्वस्थता प्रदान करना होगा। एकाग्रता को निर्मलता की शक्ति से सयुक्त करना होगा। ध्यान की भूमिका तैयार करने के लिए उचित आहार-विहार, सत्सग और स्थान की अनुकूलता पर भी दृष्टि केन्द्रित करनी होगी अन्यथा ध्यान की प्रोट मे हम छले जायेंगे और हमारा प्रयत्न आत्म-प्रवचना बन कर रह जायेगा। आज की प्रमुख समस्या तीन और गतिशील जीवन मे भी स्थिर और दृढ बने रहने की है । ध्यान साधना इसके लिए भूमि तैयार करती है । वह मानसिक सक्रियता को जड नही बनाती, चेतना के विभिन्न स्तरो पर उसे विकसित करती चलती है । आन्तरिक ऊर्जा को जागरूक बनाती चलती है। उससे प्रात्मशक्ति की बैटरी चार्ज होती रहती है, वह निस्तेज नही होती । यह ध्याता पर निर्भर है कि वह उस शक्ति का उपयोग किस दिशा मे करता है । यहाँ के मनोपी उसका उपयोग प्रात्म-स्वरूप को पहचानने मे करते रहे । जब आत्म-शक्ति विकसित और जागृत हो जाती है, हम उसी तुलना मे विघ्नो पर विजय प्राप्त करते चलते है। प्रारम्भ मे हम भौतिक और बाहरी विघ्नो पर विजय प्राप्त करते हैं पर जव शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है तब हम आन्तरिक शत्रो, वासनाओ पर भी विजय प्राप्त कर लेते है। आज आन्तरिक खतरे अधिक ११७

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