Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 137
________________ ४ धर्म परस्पर मैत्री भाव स्थापित करता है। वह मनुष्य और मनुष्य की समानता ही नही देखता वरन् प्राणीमात्र को अपने समान देखता है और उनके कल्याण की कामना करता है । आत्मीय भावो का यह विस्तार व्यक्ति को सव के प्रति सहिष्णु और सहानुभूति प्रवण वनाता है। उसकी दृष्टि मे मत, सम्प्रदाय, वर्ण जाति, लिग आदि किसी प्रकार का भेदभाव नही रहता। सब धर्मों, जीवो और सव जातियो के प्रति उसकी समदृष्टि रहती है। ५ धर्म प्रात्मा का स्वभाव है । वह व्यवहार द्वारा निर्धारित होता है। जब कभी व्यवहार मे विकृति आती है तो वह धर्म नही, अधर्म है। उस विकृति को दूर करने के प्रयत्नो मे ही धर्म की रक्षा है। धर्म के नाम पर जो हिंसा, शोषण, प्रदर्शन और अत्याचार हुए हैं या हो रहे हैं वे सव धर्म के नाम पर कलक हैं। इनके खिलाफ सगठित रूप से खडा होना, सच्चे धामिक का कर्तव्य है। ६ धर्म का विज्ञान से विरोध नही है । विज्ञान की पहुँच अभी तक प्रयोग, निरीक्षण और परीक्षण तक ही सीमित है। इसलिये उसका सत्य अन्तिम सत्य नही है । ज्यो-ज्यो प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होगा त्यो-त्यो विज्ञान का सत्य उत्तरोत्तर निखरेगा। धर्म की पहुंच अनुभति तक है। इसका प्रास्वादन आचरण और साधना से ही किया जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि विज्ञान अनुभूति के स्तर तक पहुंचे और धर्म प्रयोग और परीक्षण की प्रक्रिया से गुजरे। अव तक विज्ञान बाह्य दृष्टि से विश्व को सगठित करने में ही अपनी शक्ति का उपयोग करता रहा है और धर्म अन्तर की भीतरी शक्तियो को ही जागृत करने मे लगा रहा है । अव आवश्यकता इस बात की है कि धर्म और विज्ञान दोनो एक दूसरे के महयोगी और पूरक बने। युवावर्ग इस दिशा मे महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। ७ युवा वर्ग को यह ध्यान मे लेना चाहिये कि उसे अपने पूर्वजो से जो कुछ विरासत में मिला है, वह केवल शरीर के रूप, गुण, आकार, सत्ता, वल और भौतिक सम्पत्ति तक ही सीमित नही है। इससे भी अधिक मूल्यवान और मागलिक विरासत मिली है-धर्म की, जीवन मल्यो की और नैतिक निष्ठाओ की। शरीर और सम्पत्ति की विरासत तो नष्ट होने वाली है और केवल इसी जीवन तक सीमित है पर सच्चे धर्म के रूप १२३

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