Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ होता है तो मानव जीवन सार्थक और मगलमय बन जाता है । इसके विपरीत यदि युवावस्था असत् प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो जाती है तो सम्पूर्ण जीवन ही नष्ट हो जाता है। महाकवि विहारी ने युवावस्था की उपमा उफनती नदी से देते हुए कहा है कि हजारो व्यक्ति इसमे डूब जाते हैं, इसके कीचड मे फंस जाते हैं। यह वयरूपी नदी उफान पर आती है तव कितने अवगुण नहीं करती ? इक भी चहले परै, वडे, वहै हजार । किते न औगुन जग करै, वै-नै चढती बार ।। युवावस्था को दुर्गति से वचाने की क्षमता सम्यक् धर्माचरण मे है । किन्तु दु ख इस बात का है कि आज का युवा वर्ग धर्म से विमुख होता जा रहा है। इसके मुख्यत निम्नलिखित ऐतिहासिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं १ सामान्यत यह माना जाता है कि धर्म का सम्बन्ध अतीत या भविष्य से है। वर्तमान हमारे भूतकालीन कर्मों का परिणाम है, और भविष्य भी इसी पर आधारित है। इस मान्यता के फलस्वरूप धर्म वर्तमान जीवन से कट जाता है और वह अतीतजीवी या स्वप्नदर्शी विचार वन कर रह जाता है। २ धार्मिक उपासना के केन्द्र मे मनुष्य के स्थान पर देवता को प्रतिष्ठित कर देने से युवावर्ग की धर्म के प्रति आस्था कम हो गई है। वह मनुष्यत्व को ही विकास की सम्पूर्ण सम्भावनाओ अर्थात् ईश्वरत्व के रूप मे देखना चाहता है । धर्म का पारम्परिक रूप इसमे बाधक बनता है। ३. धर्म ज्ञान का विषय होने के साथ-साथ आचरण का विषय भी है। पर युवा वर्ग जव अपने इर्द-गिर्द तथाकथित धार्मिको को देखता है तो उनके जीवन मे कथनी और करनी का आत्यतिक अन्तर पाता है। व्यक्तित्व की यह द्वैत स्थिति युवावर्ग मे धर्म के प्रति वितृष्णा पैदा करती और वह धर्म को ढोग, पाखण्ड व थोथा प्रदर्शन समझकर उससे दूर भागता है। ४ धर्म को प्रधानतः प्रात्मा-परमात्मा के सम्बन्धो तक ही सीमित रखा गया है और जितने भी धार्मिक महापुरुष हुए हैं उन्हे आध्यात्मिक धरातल पर ही प्रतिष्ठित किया गया है। फलस्वरूप धर्म का सामाजिक, १२१

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145