Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 128
________________ फिर जापान मे इसका प्रचार किया । जापान में इस तत्त्व की तीन प्रधान शाखाएँ है १ रिजई शाखा-इसके मूल प्रवर्तक चीनी महात्मा रिजई थे। इस शाखा मे येइसाड, दाए-ओ (सन् १२३५-१३०८ ई०), देतो (सन् १२८२-१३३६), क्वजन (सन् १२७७-१३६० ई०), हेकुमिन् (सन् १६८५-१७६८ ई०) जैसे विचारक ध्यान-योगी हुए। २. सोतो शाखा-इसकी स्थापना येइ-साइ के बाद उनके शिष्य दो-गेन् (सन् १२००-१२५३ ई०) ने की । इसका सम्बन्ध चीनी महात्मा हुइ-नंग के शिष्य चिंगयूमान् और उनके शिष्य शिद्-ताउ (सन् ७००७६० ई०) से रहा है। ३. ओवाकु शाखा-इसकी स्थापना इजेन (सन् १५६२-१६७३ ई०) ने की । मूल रूप मे इसके प्रवर्तक चीनी महात्मा हुआङ-पो थे। जिनका समय हवी शती है और जो हुइ-नेंग की शिप्य परम्परा की तीसरा पीढी मे थे। उपर्युक्त विवरण से सूचित होता है कि ध्यान तत्त्व का वीज भारत से चीन-जापान गया, वहाँ वह अकुरित ही नही हुआ, पल्लवित, पुष्पित और फलित भी हुआ। वहाँ के जन-जीवन मे (विशेपत. जापान मे) यह तत्त्व घुलमिल गया है। वह केवल अध्यात्म तक सीमित नही रहा, उसने पूरे जीवन-प्रवाह मे अपना ओज और तेज बिखेरा है । येइ-साइ की एक पुस्तक 'कोजन-गोकोकु-रोन' (ध्यान के प्रचार के रूप मे राष्ट्र की सुरक्षा) ने ध्यान को वीरत्व और राष्ट्र-सुरक्षा से भी जोड़ दिया है । जापान के सिपाहियो मे ध्यानाभ्यास का व्यापक प्रचार है । मनोवल, अनुशासन, दायित्व-बोध और अन्तनिरीक्षण के लिए वहाँ यह आवश्यक माना जाता है । जापान ने स्वावलम्बी और स्वाश्रयी वनकर जो प्रगति की है, उसके मूल मे ध्यान की यह ऊर्जा प्रवाहित है। लगता है, पश्चिमी राष्ट्रो मे जो ध्यान का आकर्षण वढा है, वह उसी ध्यान तत्त्व का प्रसार है, चाहे यह प्रेरणा उन्हे सीधी भारत से मिली हो, चाहे चीन-जापान के माध्यम से । यह इतिहास का कटु सत्य है कि वर्तमान भारतीय जन-मानस अपनी परम्परागत निधि को गौरव के साथ आत्मसात् नही कर पा रहा ११४

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