Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 53
________________ के दस आदर्श श्रावको का वर्णन आया है। वहाँ उल्लेख है कि आनन्द, नन्दिनीपिता और सोलिहिपिता के पास १२-१२ करोड मोनयो की सम्पत्ति थी । चार-चार करोड सोनया निधान रूप अर्थात् खजाने मे था, चार-चार करोड सोनयो का विस्तार (द्विपद, चतुप्पद, धन-धान्य आदि की सम्पत्ति) था और चार-चार सोनयो से व्यापार चलता था। इसके अलावा उनके पास गायो के चार-चार गोकुल थे (एक गोकुल मे दसहजार गाये होती थी) । इसी प्रकार कामदेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक के पास १८-१८ करोड सोनये थे और गायो के ६ गोकुल थे। चुलनीपिता, सुरादेव, महाशतक के पास २४-२४ करोड सोनयो की सम्पत्ति और गायो के ८ गोकुल थे । सहालपुत्त जो जाति का कुम्भकार था, उसके पास तीन करोड सोनयो की सम्पत्ति थी और दस हजार गायो का एक गोकुल था। मध्ययुग मे वस्तुपाल-तेजपाल और भामाशाह जैसे श्रेण्ठि थे । आधुनिक युग मे भी श्रेष्ठियो की कमी नही है। इससे स्पष्ट है कि महावीर गरीवी का समर्थन नहीं करते। उनका प्रहार धन के प्रति रही हुई मूर्छावृत्ति पर है । वे व्यक्ति को निष्क्रिय या अकर्मण्य बनाने को नही कहते, पर उनका वल अजित सम्पत्ति को दूसरो मे बाँटने पर है। उनका स्पष्ट उद्घोष है-'असविभागी ण हु तस्स मोक्खो' अर्थात् जो अपने प्राप्य को दूसरो मे बाँटता नही, उसकी मुक्ति नहीं होती। अर्जन के विसर्जन का यह भाव उदार और सवेदनशील व्यक्ति के हृदय मे ही जागत हो सकता है और ऐसा व्यक्ति क्रूर, हिंसक या पापाचारी नहीं हो सकता। निश्चय ही ऐसा व्यक्ति मिष्टभापी, मितव्ययी, सयमी और सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाला होगा और इन सबके सम्मिलित प्रभाव से उसकी सम्पत्ति भी उत्तरोत्तर वृद्धिमान होगा। अर्जन का विसर्जन नियमित रूप से होता रहे और मर्यादा से अधिक सम्पत्ति सचित न हो, इसके लिए अतिथि सविभाग व्रत और दान का विधान है । भगवती सूत्र मे तु गिया नगरी के ऐसे श्रावको का वर्णन आता है जिनके घरो के द्वार अतिथियो के लिए सदा खुले रहते थे। अतिथियो मे साधुग्रो के अतिरिक्त जरूरतमन्द लोगो का भी समावेश है। पूण्य तत्त्व के प्रसग मे पुण्य बन्ध के नौ कारण बताये गये हैं। इस दृष्टि से वे उल्लेखनीय हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - ३९

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