Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ मेमना, मृग आदि को हिसा के क्रूर प्रसग दिल को दहलाने वाले है । तीव्र औद्योगिकरण से आर्थिक विपमता बढने के साथ-साथ प्रदूषण की विकट समस्या खडी हो गई है जो सम्पूर्ण मानवता के विनाश का कारण बन सकती है । प्रदूषण से हिंसा का खतरा भी अधिक बढ़ गया है । कारखानो से निकलने वाली विषैली गैसो, विषाक्त एव हानिकर तरल पदार्थों के कारण जल-प्रदूषण एव वायु प्रदूषण इतना अधिक हुआ है कि समुद्र की लाखो मछलियाँ नष्ट हो गयी है। और मानव-स्वास्थ्य के लिये गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है। अणु परीक्षण की रेडियोधर्मिता और कीटाणुनाशक दवाइयो के प्रयोग से थल प्रदूषण की समस्या भी उभर कर सामने आ रही है निरन्तर चलने वाले शीतयुद्धो की लहर ने मनुष्य को भयभीत और असुरक्षित बना दिया है। बढती हुई क्रूरता, युद्ध की आशका और हिंसा से बचने का एक ही रास्ता है और वह है अहिंसा का । भगवान् महावीर ने अपने अनुभव से कहा सव्वे पारणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिकूला अप्पियवहा । पियजीविणो, जीविउकामा, सन्वेसि जीविय पिय ॥' अर्थात् सभी जीवो को अपना आयुष्य प्रिय है । सुख अनुकूल है, दु ख प्रतिकूल है । वध सभी को अप्रिय लगता है और जीना सबको प्रिय लगता है । प्राणीमात्र जीवित रहने की कामना वाले हैं। इस प्रकार महावीर ने पशु-पक्षी, कीट-पतगे, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि मे भी जीवन देखा और उनके प्रति अहिंसक भाव, दयाभाव, रक्षाभाव, बनाये रखने का उपदेश दिया। महावीर ने बाहरी विजय के स्थान पर आतरिक विजय, आत्मविजय, इन्द्रियनिग्रह को महत्त्व दिया । उन्होने ऐसे कार्य-व्यापार और उद्योग-धन्धे करने का निषेध किया जिनमे अधिक हिंसा होती हो । ऐसे कार्यों की संख्या शास्त्रो मे '१५ गिनाई गयी है और इन्हे 'कर्मादान' कहा गया है। उदाहरण के लिये 'जगल को जलाना (इगालकम्मे), शराब आदि मादक पदार्थों का व्यापार करना (रस वाणिज्जे), अफीम, सखिया आदि मादक पदार्थों को बेचना (विसवाणिज्जे), सुन्दर केश वाली स्त्री का क्रय-विक्रय करना (केशवाणिज्जे), वनदहन करना (दवग्गिदावणियाकम्मे) असयती अर्थात् असामाजिक १ आचाराग २/२/३

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145