Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 120
________________ महावीर ने हिंसा, झूठ, चोरी, ब्रह्मचर्य और परिग्रह, सुनने, देखने, सू घने, चखने और छूने की भोग शक्ति, क्रोध, मान, माया और लोभ की भावना तथा मन, वचन और काया की अपवित्रता कहा है । इन मनोविकारो पर नियन्त्रण करके ही वर्तमान युग मे व्याप्त हिंसा, चोरी और नानाविध अपराध वृत्तियो पर विजय प्राप्त की जा सकती है, क्योकि जो दुर्जेय सग्राम मे हजारो हजार योद्धाओ को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परम विजय है जो सहस्स सहस्ताणं, सगामे दुज्जए जिणे । एग जिणेज्ज प्रप्पाण, एस से परमो जयो || १ आत्मविजय की यह दृष्टि तभी विकसित हो सकती है, जब व्यक्ति यह अनुभव करे कि जैसा मेरा अस्तित्व है, वैसा दूसरे का भी है, जैसे सुख मुझे प्रिय है, वैसे दूसरे को भी है, जैसा मैं अपने साथ दूसरो से व्यवहार चाहता हूँ वैसा व्यवहार दूसरा भी अपने साथ चाहता है । यह दृष्टि ससार के सभी प्राणियो को अपने समान समझने जैसी मैत्री भावना का विकास किये विना नही ग्रा सकती । यह मैत्री भाव अहिंसा और प्रेम भाव का परिणाम है और है अनुशासन का मूल उत्स । जब व्यक्ति दूसरे प्राणियो को अपने समान समझने लगता है तब वह उन कार्यों और प्रवृत्तियो से वचने का प्रयत्न करता है, जिनसे समाज मे उच्छू खलता फैलती है, तनाव बढता है और हिंसा भडकती है। जब-जब मन मे दूसरो के प्रति क्रूर भाव पैदा होता है, परायेपन का भाव जागता है, तब-तब व्यक्ति असामाजिक और अनैतिक कार्य करता है, अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है, राग-द्व ेष के सकल्पो- विकल्पो मे तैरता उतराता है, और इस प्रकार नये-नये मानसिक तनावो को आमंत्रित करता है, नई-नई ग्रथियो को जन्म देता है और फलतः दुखी व सतप्त होता है । इस दुख से मुक्त होने के लिये भगवान् महावीर ने वार-बार कहा है कि हे आत्मन् तू दूसरो को न देख, अपने को देख, क्योकि अपने सुख-दुख का कर्ता तू स्वय ही है । सत्प्रवृत्त आत्मा ही तेरा मित्र है और दुष्प्रवृत्त आत्मा तेरा शत्रु, अत. तू दूसरो को नियन्त्रित और अनुशासित करने की वजाय पहले अपने को नियन्त्रित और अनुशासित कर । यह नियन्त्रण और अनुशासन, सयम और तप के द्वारा सभव है । 'सयम का अर्थ है - अपनी १ - उत्तराध्ययन सूत्र ९ / ३४ 7 १०६

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