Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 124
________________ (२) अनुभव करना अर्थात् अनुभूति (Feeling) और (३) चेष्टा करना अर्थात् मानसिक सक्रियता (Conation) | ये तीनो मन के विकास मे परस्पर सम्बद्ध-सलग्न हैं । ध्यान एक प्रकार की मानसिक चेष्टा है। यह मन को किसी वस्तु या सवेदना पर केन्द्रित करने मे सक्रिय रहती है। पर आध्यात्मिक पुरुषो ने ध्यान को इससे आगे चित्तवृत्ति के निरोध के रूप मे स्वीकार कर आत्म-स्वरूप मे रमण करने की प्रक्रिया बतलाया है। ध्यान का अर्थ है एकाग्रता । उसकी विपरीत स्थिति है व्यग्रता। व्यग्रता से एकाग्रता की ओर जाना ध्यान का लक्ष्य है । व्यग्रता पर पदार्थों के प्रति आसक्ति का परिणाम है । इस आसक्ति को कम करते हुए, विषयविमुख होते हुए स्व-सम्मुख होना ध्यान है । ध्यान के प्रकार ध्यान के कई अग-उपाग है । जैन दर्शन मे ' इसका कई प्रकार से वर्गीकरण मिलता है । ध्यान के मुख्य चार प्रकार हैं १. आर्तध्यान, २. रौद्र ध्यान, ३. धर्म ध्यान और ४ शुक्ल ध्यान । आर्त का अर्थ है पीडा, दुख, चीत्कार । इस ध्यान मे चित्तवृत्ति बाह्य विषयो की ओर उन्मुखं रहती है । कभी अप्रिय वस्तु के मिलने पर और कभी प्रिय वस्तु के अलग होने पर आकुलता बनी रहती है । इस आकुलता का मूल कारण है राग । रौद्र का अर्थ है-भयकर, डरावना । इस ध्यान मे हिंसा, झूठ, चोरी, विषयादि सेवन की पूर्ति मे सलग्ता रहती है और इनके बाधक तत्त्वो के प्रति द्वेष के कारण कठोर-क्रूर भावना वनी रहती है । आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान, दोनो त्याज्य हैं । आर्त ध्यान व्यक्ति को राग मे बाधता है और रौद्र ध्यान द्वेष मे । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये दोनो ध्यान अनैच्छिक ध्यान की श्रेणी मे पाते है । इनके ध्याने मे इच्छा शक्ति को कोई प्रयत्न नही करना पडता। ये मानव की पश-प्रवृत्ति को संतृप्ति देने मे ही लीन रहते हैं । इनका साधना की दृष्टि से कोई महत्त्व ११०

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