Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 107
________________ आयेगा-जायेगा । इस प्रकार इच्छा-नियमो और आवश्यकताओ के परिसीमन से उपभोग पर स्वैच्छिक नियन्त्रण लगेगा जिससे वस्तु का अनावश्यक सग्रह नही होगा। महावीर के इच्छा-परिमाण और परिग्रहपरिमाण की भावना आज के आयकर, सम्पत्ति कर, भूमि और भवन कर, मृत्युकर आदि से मेल खाती है। भगवान महावीर ने आवश्यकताओ को सीमित करने के साथ-साथ जो आवश्यकताएँ शेष रहती है उनकी पूर्ति के लिये आजीविका को शुद्धि पर विशेप बल दिया। युद्ध, हिसा और अभाव के परिणामस्वरूप आज चारो ओर घुटन और विघटन का वातावरण बना हुआ है। व्यक्ति, परिवार और समाज परस्पर सघर्परत है । सहभागिता, सहयोग और प्रेम का अभाव है। नफरत, ईर्ष्या और अविश्वास की भावना से न व्यक्तित्व का निर्माण हो पा रहा है न सामाजिक संगठन वन पा रहा है। इस स्थिति से निपटने के लिये भगवान् महावीर ने आत्मधर्म के समानान्तर ही ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, सघधर्म की महत्ता प्रतिपादित करते हुए उनकी सम्यकपरिपालना पर बल दिया और कहा-सेवाधर्म महान् धर्म है। जो दुखी, असहाय और पीड़ित है उनकी सेवा करना अपनी आत्म शक्तियो को जाग्रत करने के बराबर है । सेवा को तप कहा गया है जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। दूसरो को भोजन, स्थान, वस्त्र आदि देना, उनके प्रति मन से शुभ प्रवृत्ति करना, वाणी से हित वचन वोलना और शरीर से शभ कार्य करना तथा समाजसेवियो व लोकसेवको का आदर सत्कार करना पूण्य है। सेवाव्रती को किसी प्रकार का अहम् न छ पाये और वह सत्तालिप्सु न बन जाये, इस बात को सतर्कता पदपद पर बरतनी जरूरी है। लोक सेवा के नाम पर अपना स्वार्थ साधने वालो को महावीर ने इस प्रकार चेतावनी दी है असविभागी असगहरुई अप्पमाणभोई । से तारिसए नाराहए वयमिण ।। अर्थात् जो असविभागी जीवन साधनो पर व्यक्तिगत स्वामित्व की सत्ता स्थापित कर, दूसरो के प्रकृति प्रदत्त सविभाग को नकारता है, असग्रहरुचि-जो अपने लिये ही सग्रह करके रखता है जो दूसरो के लिये कुछ भी नही रखता, अप्रमाणभोजी-मर्यादा से अधिक भोजन एव जीवन साधनो का स्वय उपभोग करता है वह आराधक नही, विराधक है।

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